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ग्रन्थसार
[निन्यानवे] घ-यह मान्यता भी अप्रामाणिक है कि अर्धफालकसंघ वि० सं० १३६ (ई० सन् ७९) में श्वेताम्बरसम्प्रदाय के रूप में परिवर्तित हो गया था, क्योंकि मथुरा के कंकालीटीले की खुदाई में जो जिनप्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, वे प्रथम शताब्दी ई० की हैं, उनमें से कुछ अर्धफालक सम्प्रदाय के साधुओं द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थीं। इससे सिद्ध होता है कि अर्धफालकसम्प्रदाय ईसा की प्रथम शती तक श्वेताम्बरसंघ में विलीन नहीं हुआ था। इस प्रमाण से भी क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी की यह मान्यता निरस्त हो जाती है कि जिनचन्द्र ने वि० सं० १३६ (ई० सन् ७९) में श्वेताम्बरसंघ की स्थापना की थी।
ङ-क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने भावसंग्रह (प्राकृत) के अनुसार जिनचन्द्र को वि० सं० १३६ (ई० सन् ७९) में श्वेतम्बरसंघ का संस्थापक माना है और कुछ वर्षों बाद उनके दिगम्बरसंघ में लौटने और ई० सन् ९६ में उनके द्वारा कुन्दकुन्द को दीक्षा दिये जाने की कल्पना की है। किन्तु दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी की नन्दिसंघीय पट्टावली में बतलाया गया है कि कुन्दकुन्द का जन्म ईसा से ५२ वर्ष पूर्व हुआ था और ईसा से ८ वर्ष पूर्व ४४ वर्ष की आयु में उन्होंने मुनिदीक्षा ग्रहण की थी। इस प्रमाण के अनुसार कुन्दकुन्द की मुनिदीक्षा क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी के कल्पित समय से १०४ वर्ष पहले ही हो गयी थी, अतः क्षुल्लक जी का मत प्रमाणविरुद्ध है।
च-आचार्य जिनचन्द्र कुन्दकुन्द के गुरु थे और 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रकाशित पट्टावली में उनका पट्टारोहणकाल कुन्दकुन्द के पट्टारोहणकाल (वि० सं० ४९ = ईसापूर्व ८) से ९ वर्ष पूर्व (वि० सं० ४० = ईसापूर्व १७ में) बतलाया गया है। इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने वि० सं० १३६ अर्थात् ई० सन् ७९ में जिस जिनचन्द्र को शान्त्याचार्य का वध कर श्वेताम्बरसंघ का संस्थापक तथा ई० सन् ९६ में कुन्दकुन्द का दीक्षागुरु माना है, वह उनका दीक्षागुरु हो ही नहीं सकता। सच तो यह है कि उसका अस्तित्व ही नहीं था, क्योंकि भद्रबाहुचरित के कर्ता रत्ननन्दी ने शान्त्याचार्य के स्थान में स्थूलाचार्य के वध की बात कही है, और किसी जिनचन्द्र को वधकर्ता न बतलाकर सभी विरोधी मुनियों को वधकर्ता बतलाया है। (अध्याय ६/प्र.१ / शी.८)। इसके अतिरिक्त वि० सं० १३६ में श्वेताम्बरमत की उत्पत्ति हुई ही नहीं थी, वह जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् अर्थात् ईसापूर्व ४६५ में ही हो गयी थी तथा अर्धफालकसम्प्रदाय का भी श्वेताम्बरीकरण वि० सं० १३६ अर्थात् ७९ ई० में न होकर उसके सौ-पचास वर्ष बाद हुआ था।
८. आचार्य जयसेन ने पंचास्तिकाय और प्रवचनसार की टीका में लिखा है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने शिवकुमार महाराज के प्रतिबोधनार्थ इन ग्रन्थों की रचना की
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