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[अट्ठानवे]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी ने स्वयं इसे अपनी एक क्लिष्ट (संगत प्रतीत न होनेवाली) कल्पना कहा है। निश्चितरूप से यह एक अयुक्तियुक्त कल्पना है। यह निम्नलिखित हेतुओं से सिद्ध होता है
क-शान्त्याचार्य के शिष्य जिनचन्द्र थे और उन्होंने शान्त्याचार्य का वध कर श्वेताम्बरसंघ की स्थापना की थी, यह भावसंग्रह (प्राकृत) के कर्ता दिगम्बर आचार्य देवसेन (९३३-९५५ ई०) की कल्पना है। श्वेताम्बरमत में श्वेताम्बरसम्प्रदाय का प्रवर्तक किसी जिनचन्द्र को नहीं माना गया है। अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की आचार्यपरम्परा भिन्न-भिन्न हो जाती है। जहाँ दिगम्बरपरम्परा में अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के बाद प्रथम श्रुतकेवली विष्णु का नाम है, वहाँ श्वेताम्बरपरम्परा में आचार्य प्रभव का उल्लेख है। (श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृष्ठ ५६२)। इससे सिद्ध होता है कि आचार्य प्रभव श्वेताम्बरसंघ के संस्थापक थे। किन्तु अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु (वीर नि० सं० १६२) के समकालीन आचार्य स्थूलभद्र को श्वेताम्बरपरम्परा में अन्त्यन्त महत्त्व दिया गया है और श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी ने लिखा है कि "दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थसंघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर का सचेल निर्ग्रन्थसंघ स्थूलभद्र की परम्परा से विकसित हुआ।" (जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा / पृ.२९)। इस श्वेताम्बरीय मान्यता से क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी की यह कल्पना निरस्त हो जाती है कि कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्र पूर्व में श्वेताम्बरसंघ के संस्थापक थे।
ख-श्वेताम्बरसंघ के संस्थापक आचार्य स्थूलभद्र अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समकालीन होने से ईसा पूर्व चौथी शताब्दी (वीर नि० सं० १६२ = ई० सन् ३६५) में हुए थे, जब कि आचार्य देवसेन ने शान्त्याचार्य का वधकर जिनचन्द्र द्वारा श्वेताम्बरसंघ स्थापित किये जाने की घटना वि० सं० १३६ (ई० सन् ७९) में घटी बतलायी है। इस कालवैषम्य से भी क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी की कल्पना अयुक्तियुक्त सिद्ध होती है।
ग-दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं का साहित्य इस बात का उल्लेख करता है कि अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण (वीर नि० सं० ६२ = ईसा पूर्व ४६५) के पश्चात् दोनों संघों की आचार्यपरम्परा भिन्न-भिन्न हो गयी थी। यह इस तथ्य का ज्वलन्त प्रमाण है कि श्वेताम्बरसंघ का उदय ईसापूर्व ४६५ में हो गया था। श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय (ईसापूर्व चौथी शताब्दी) में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के फलस्वरूप निर्ग्रन्थसंघ का जो दूसरा विभाजन हुआ था, उससे श्वेताम्बरसंघ नहीं. अपित अर्धफालकसंघ अस्तित्व में आया था. जो आगे चलकर ईसा की द्वित शताब्दी में श्वेताम्बरसंघ में विलीन हो गया। इस आगमप्रमाण से भी क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी की कल्पना अत्यन्त अप्रामाणिक सिद्ध होती है।
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