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________________ ग्रन्थसार [ पंचानवे ] कुसील, संसत्त, ओसण्ण और जहाछंद नामों से अभिहित होते थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने उनका अस्तित्व अनादिकाल से बतलाया है । (अध्याय ८ / प्र.४ / शी. ३) । अतः उन्हें भट्टारकपरम्परा की मनगढन्त प्रथम या द्वितीय विकसित अवस्थाओं से जोड़ना अप्रामाणिक है। ऐसा करने से तो भट्टारकपरम्परा अनादिकालीन अथवा भगवान् महावीर से पुरानी सिद्ध होगी । उपर्युक्त लक्षणोंवाले अजिनोक्त - सवस्त्रसाधुलिंगी, धर्मगुरु, भट्टारकों के सम्प्रदाय का जन्म ईसा की १२ वीं शताब्दी में हुआ था । (अध्याय ८ / प्र.४ / शी. ३) । इससे पूर्ववर्ती मठ-मन्दिर - नियतवासी पासत्थादि नग्न मुनियों को जो बीसवीं शताब्दी ई० के ग्रन्थकारों ने 'भट्टारक' शब्द से अभिहित किया है, वह मठ-मन्दिर में नियतवास, भूमिग्रामादिदान-ग्रहण एवं उनके प्रबन्ध आदि के साधर्म्य की अपेक्षा से किया है। किन्तु यह युक्तिसंगत नहीं है । मठ-मन्दिर में नियतवास, भूमिग्रामादिदान-ग्रहण एवं उनके प्रबन्ध आदि की प्रवृत्तियाँ भट्टारकीय प्रवृत्तियाँ नहीं हैं। ये गृहस्थप्रवृत्तियाँ हैं और भट्टारक वस्त्रादि-परिग्रहधारी होने के कारण गृहस्थ होते हैं । अतः ये गृहस्थ प्रवृत्तियाँ भट्टारकों की 'गृहस्थ' संज्ञा का हेतु हैं, 'भट्टारक' संज्ञा का नहीं। भट्टारक गृहस्थावस्था में रहते हुए भी जो मुनिकर्म ( धर्मगुरु का कार्य ) करते हैं, वह उनकी 'भट्टारक' संज्ञा का हेतु है । पासत्थादि मुनि गृहस्थावस्था में नहीं होते, अतः उनका मुनिकर्म 'भट्टारक' संज्ञा का हेतु नहीं हो सकता। वह 'मुनि' संज्ञा का ही हेतु होता है । और मुनि - अवस्था में रहते हुए वे जो गृहस्थ कर्म करते हैं, वह 'पासत्थादि' संज्ञाओं का हेतु होता है, 'भट्टारक' संज्ञा का नहीं, क्योंकि 'भट्टारक' संज्ञा का हेतु तो गृहस्थावस्था में रहते हुए किया जानेवाला मुनिकर्म है। इसलिए जब पासत्थादि मुनियों की प्रवृत्तियाँ भट्टारकीय प्रवृत्तियों से बिलकुल उलटी हैं, तब पासत्थादि मुनियों को भट्टारक कहना युक्तिसंगत कैसे हो सकता है? कदापि नहीं हो सकता । आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे और भट्टारकसम्प्रदाय का उदय ईसा की १२ वीं शताब्दी में हुआ था, अतः आचार्य हस्तीमल जी का यह कथन कि आचार्य कुन्दकुन्द प्रथमतः भट्टारकसम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे, सर्वथा अप्रामाणिक है। यह सत्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समय में जैन श्रमणाभासों का बाहुल्य था, किन्तु आरंभ में वे स्वयं श्रमणाभास ( पासत्थ या कुसील मुनि ) थे, इसे सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। उन्होंने दिगम्बरजैन मुनियों के परमार्थस्वरूप को ऊपर उठाने ( मुनियों और श्रावकों की दृष्टि एवं आचरण में बैठाने) के लिए क्रान्तिकारी प्रयत्न किया था । किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उन्होंने श्रमणाभाससंघ में दीक्षा लेने के बाद अपने श्रमणाभासगुरु जिनचन्द्र एवं श्रमणाभासधर्म से विद्रोह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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