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________________ [ चौरानवे ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ का प्रयोग है, न किसी पट्टधर को 'भट्टारक' शब्द से अभिहित किया गया है। इसलिए आचार्य हस्तीमल जी ने इन शब्दों का प्रयोग मानकर इण्डियन ऐण्टिक्वेरीवाली पट्टावली को जो भट्टारकपरम्परा की पट्टावली मान लिया है, वह उनका महान् भ्रम है। इस पट्टावली के प्रथम और द्वितीय क्रमांक पर उल्लिखित भद्रबाहु - द्वितीय और गुप्तिगुप्त को आचार्य हस्तीमल जी ने भट्टारक नहीं माना, तथा छठे क्रमांक पर निर्दिष्ट उमास्वामी को वे भट्टारक मान नहीं सकते, इससे सिद्ध है कि वह भट्टारक - सम्प्रदाय की पट्टावली नहीं है। कुन्दकुन्दान्वय में सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण का विकास कुन्दकुन्द के अस्तित्वकाल (ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी) से लगभग नौ सौ वर्षों बाद तथा नन्दिसंघ का उदय ग्यारह सौ वर्षों के पश्चात् हुआ था, अतः वे नन्दिसंघ के नहीं थे। इसलिए नन्दिसंघ की पट्टावली को भट्टारकपट्टावली मान लेने पर भी कुन्दकुन्द भट्टारक सिद्ध नहीं होते। इसी प्रकार बलात्कारगण की पट्टावली में भी आचार्य कुन्दकुन्द का नाम निर्दिष्ट होने पर यह सिद्ध नहीं होता कि वे भट्टारकसम्प्रदाय के थे। (अध्याय ८/ प्र. ३ / शी. १) । 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में छपी पट्टावली वस्तुतः कुन्दकुन्दान्वय की पट्टावली है। उसमें दिगम्बराचार्यों के भी नाम हैं और अजिनोक्त - सवस्त्रसाधुलिंगी भट्टारकों के भी । इसलिए भी उसे केवल नन्दिसंघ के भट्टारकसम्प्रदाय की पट्टावली मान लेना महाभ्रान्ति है । (अध्याय ८ / प्र.३ / शी. २) । ५. ग्रन्थों और शिलालेखों में 'भटार', 'भट्टार' और 'भट्टारक' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं - १. पूज्य, २. विद्वान् एवं ३. दिगम्बरपरम्परा में नवोदित अजिनोक्तसवस्त्रसाधुलिंगी धर्मगुरु । दिगम्बरपरम्परा में इन नवोदित सवस्त्र मिथ्या धर्मगुरुओं का सम्प्रदाय ही भट्टारकसम्प्रदाय या भट्टारकपरम्परा के नाम से प्रसिद्ध हुआ है । (अध्याय ८ / प्र.४/ शी. १ एवं २ ) । विभिन्न ग्रन्थों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों में इन धर्माधिकारी भट्टारकों के असाधारणधर्म (लक्षण) इस प्रकार बतलाये गये हैं - १. भट्टारकदीक्षाविधि द्वारा भट्टारकपद पर प्रतिष्ठापन, २. अजिनोक्त - सवस्त्रसाधुलिंग-ग्रहण, ३. धर्मगुरु एवं पण्डिताचार्य के अधिकारों का आरोपण, ४. दक्षिणा - चढ़ावा - भेंट- शुल्क आदि से अर्थोपार्जन और ५. राजोचित वैभव एवं प्रभुता का स्वामित्व तथा ऐश्वर्यमय निरंकुश जीवनशैली | (अध्याय ८ / प्र.४ / शी. ४) । ऐसे लक्षणोंवाले धर्मगुरु भट्टारक ही सम्प्रदायगत भट्टारक हैं। जो दिगम्बरमुनि मठ-मन्दिरों में नियतवास करते थे और राजाओं से भूमि - ग्राम आदि का दान ग्रहण कर मठ-मन्दिरों की व्यवस्था एवं जीवननिर्वाह करते थे, उनका सम्प्रदाय भट्टारकसम्प्रदाय नहीं कहलाता था ( अध्याय ८ / प्र.४ / शी. ५) । वे पासत्थ, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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