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[छियानवे]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ करके ऐसा किया था। मूलसंघ में दीक्षित होकर वे ऐसा क्यों नहीं कर सकते थे? इसके विरुद्ध कोई प्रमाण न होने से सिद्ध है कि उन्होंने ऐसा ही किया था। (अध्याय ८/प्र.४/शी.६)।
६. आचार्य हस्तीमल जी अपने इस मत पर भी अधिक दिन तक टिक नहीं सके कि आचार्य कुन्दकुन्द वि० सं० ५३० (ई० सन् ४७३) में भट्टारकपद पर प्रतिष्ठित हुए थे। आगे चलकर उन्हें एक अत्यन्त अप्रसिद्ध एवं अर्वाचीन महिपाल नामक पण्डित के द्वारा वि० सं० १९४० (ई० सन् १८८३) में रचित प्रतिष्ठापाठ नामक पुस्तक प्राप्त हुई, जिसमें लिखा हुआ था कि आचार्य कुन्दकुन्द विक्रम संवत् ७७० (ई० सन् ७१३) में वारानगर में उत्पन्न हुए थे।
आचार्य श्री हस्तीमल जी ने इस बात पर आँखें मींच कर विश्वास कर लिया और हरिवंशपुराण में वर्णित पट्टावली के आधार पर उन्होंने जो कुन्दकुन्द का काल विक्रम सं० ५३० निर्णीत किया था, उसे अप्रामाणिक घोषित करते देर नहीं लगी, क्योंकि ऐसा करने से कुन्दकुन्द और भी अर्वाचीन सिद्ध होते थे, जो उनके लिए अभिप्रेत था। अब उनके अनुसार कुन्दकुन्द का स्थितिकाल ईसा की आठवीं शताब्दी हो गया।
आचार्य जी का यह संशोधित मत भी सर्वथा अप्रामाणिक है। इण्डियन ऐण्टिक्वेरीगत पट्टावली में कुन्दकुन्द का जो समय बतलाया गया है, उसकी प्रामाणिकता की पुष्टि साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाणों से हो चुकी है। अतः कुन्दकुन्द का अस्तित्व आठवीं शती ई० में बतलाया जाना प्रमाणविरुद्ध है।
वस्तुतः राजस्थान के वारा नामक नगर में एक अन्य पद्मनन्दी नामक आचार्य (ई० सन् ९७७ -१०४३) हुए हैं, जिन्होंने जंबुदीवपण्णत्ती नामक ग्रन्थ की रचना की थी। आचार्य कुन्दकुन्द का भी एक नाम पद्मनन्दी था। इस नामसाम्य के कारण ज्ञानप्रबोध नामक पद्यबद्ध ग्रन्थ के किसी अज्ञात कर्ता ने तथा प्रतिष्ठापाठ के रचयिता पं० महिपाल ने उक्त जंबुदीवपण्णत्ती के कर्ता पद्मनन्दी को कुन्दकुन्दाचार्य मान लिया है। (अध्याय १० / प्र. ३ / शी. २)।
७. आचार्य हस्तीमल जी ने कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्र के भट्टारकसम्प्रदाय के पीठाधीश होने की कल्पना की है, तो क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने यह कल्पित किया है कि वे श्वेताम्बरमत के संस्थापक थे, बाद में दिगम्बर हो गये थे। वे लिखते हैं
"माघनन्दी के पश्चात् कुन्दकुन्द के गुरु आचार्य जिनचन्द्र का नाम आता है।--- श्वेताम्बरसंघ के आदिप्रवर्तक का नाम भी जिनचन्द्र कहा गया है। ---इस विषय में यहाँ विचारकों के समक्ष एक क्लिष्ट कल्पना प्रस्तुत करता हूँ, जिसकी
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