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परिचय
श्रीहैमप्रकाश पूर्वार्द्ध छोटी और बडी टीका से अलंकृत इस ग्रंथरत्नके कर्ता महामहोपाध्याय श्रीविनयविजयजी गणी हैं. आप श्रेष्ठितेजःपाल की अभ्युदयशालिनी पत्नी श्रीराजश्री के पुत्ररत्न थे. आपश्रीने महोपाध्याय श्रीकीर्तिविजय महाराज के करकमलों से दीक्षा अंगीकार करके अपने गुरुवर्यके सहोदर और वृद्ध गुरुभ्राता महोपाध्याय श्रीसोमविजयजी महाराज के पास विद्याभ्यास करके अपूर्व योग्यता पाई थी. आप श्रीलोकप्रकाश आदि अनेक बडे, और शांतसुधारसादि अनेक छोटे ग्रंथरत्नोंके रचयिता हैं. इतना ही नही परंतु महाशास्त्र श्रीकल्पसूत्रादि अनेक ग्रंथोंके टीकाकार भी हैं. आप का समय १७ मी १८ मी विक्रम शताब्दीका है. आप न्यायविशारदादि अनेकबिरुदधारक स्वनामधन्य महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज के सहचारी और प्रेमपात्र थे।
आपका रचा हुआ यह ग्रंथरत्न, गुर्जरसम्राट् श्रीसिद्धराज-कुमारपालादि अनेकभूपतिप्रतिबोधक, कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यवर्यकृत, श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासननामक महाव्याकरण (जिस को डॉ० एफ् किल्हॉर्न ( Kielhorn) भी “The best Grammar of Indian middle ages." अर्थात् आर्यावर्त का मध्यकालीन सर्व श्रेष्ठ व्याकरण बताते है ) आदि अनेक ठयाकरणो का दोहनरूप है. इसमें सूत्र तो हैम व्याकरण के ही हैं, परंतु टीकाएं तो प्राचीन अर्वाचीन सर्व व्याकरणो के सरल सुबोध सार से भरी पडी हैं. शुद्ध संस्कृत लिखने बोलने की इच्छा वालों को ऐसा सुगम सुबोध विशाल व्याकरण और कहीं भी प्राप्त नहीं हो सकेगा. गीर्वाण भाषा के प्रेमी शीघ्र ही हिन्दुस्तान के सर्वश्रेष्ठ निर्णयसागरमुद्रणालय में सुन्दर पत्रों पर अतिसुन्दर अक्षरों से मुद्रित इस व्याकरण को अपनाकर अपने संस्कृत ज्ञान को शुद्ध, समृद्ध बनाने का प्रयत्न करें.
. मुद्रणालयमें "श्रीहैमलिंगानुशासन विवरण" पूर्व और पश्चिम के विद्वानों में प्रसिद्ध, धन्धू का वासी मोढ ज्ञाति के भूषण चाचिग की पत्नी पाहिनी देवी के कुक्षिरत्न, श्वेतांबरायणी श्रीदेवचन्द्रसूरि के शिष्यरत्न, जैनशासन नभोदिवाकर, कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्र सूरीश्वर की यह प्रशंसनीय कृति है. आपने अविद्यान्धकार को दूर करने के लिए जिस महाव्याकरण को रचा, उसी का उत्तम अंश रूप यह ग्रंथ है. मूल तो छंदसंख्या सिर्फ १३५ है. परंतु खोपज्ञ विवरण और फिर उस पर का वल्लभवाचककृतदुर्गप्रदप्रबोध तो ६००० श्लोक प्रमाण हैं. संस्कृत भाषा की लिंगव्यवस्था जैसी विशाल है, वैसी ही अनेक मतांतरों से युक्त और जटिल भी है. सैंकडो दुर्बोध ग्रंथो को हृदयंगम करके विद्यार्थिगण को उन का विषय सरलतापूर्वक समझाना तो कलिकाल के अल्पमति जीवों पर करुणा के धारण करने वाले कलिकालसर्वज्ञ महर्षिश्रीहेमचन्द्र का ही सिद्धहस्त कर्तव्य है. जो आपने इस ग्रंथ में भी कर दिखाया है. दुर्बोध विद्यार्थिगण और वैद्यवों के लिए उपयुक्त श्रीवल्लभवाचककृत दुर्गपदप्रबोध भी साथ में ही दिया गया है. एक साथ अनेक विषयों को अभ्यास करने के कारण किसी भी विषय में पूरा समय देने में असमर्थ मॅट्रिक और कालिजों के विद्यार्थि गण, किसी भी शब्द की लिंग की निःसंशय जानकारी के शीघ्र अभिलाषी पंडितगण, मात्र रेफरन्स के लिए अनेक ग्रंथों का उपयोग करने वाले प्रोफेसरगण, और संस्कृत शब्दों के प्रतिरूप प्राचीन लौकिक भाषा के शब्दों के जिज्ञासु भाषा शास्त्रिगण के उपयुक्त अकारादि अनुक्रमणिकाएं भी दी गई हैं, जो बालविद्यार्थियों से लेकर महान् विद्वानों तक के लिए अत्यावशक और उपकारक हैं.
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