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________________ १६४ प्रस्तावना कालभेद नहीं करता और न उसमें परकी अपेक्षा पृथक्त्व ही मानता है। इस तरह जिनभद्रगणिके मतसे ऋजुसूत्रनयमें चारों ही निक्षेप संभव हैं। ये शब्दादि तीन नयों में मात्र भावनिक्षेप ही मानते हैं। और उन्होंने इसका हेतु दिया है इन नयोंका विशुद्ध होना । विशेषावश्यक भाष्य में एक मत यह भी है कि ऋजुसूत्रनय नाम और भाव इन दो निक्षेपोंको ही विषय करता है । एक मत यह भी है कि संग्रह और व्यवहार स्थापना निक्षेपको विषय नहीं करते । इस मतके उत्थापकका कथन है कि-स्थापना चूँकि सांकेतिक है अतः वह नाममें ही अन्तर्भूत है । इसका प्रतिवाद करते हुए उन्होंने लिखा है कि जब नैगमनय स्थापना निक्षेपको स्वीकार करता है और संग्रहिक नैगम संग्रहनयरूप है और असंग्रहिक नैगम व्यवहार नयरूप है तो नैगमके विभक्तरूप संग्रह और व्यवहार में स्थापना निक्षेप भी विषय हो ही जाता है। इस तरह विवक्षाभेदसे निक्षेपोंमें नय योजनाका उपर्युक्त रूप रहा है। इस तरह प्रमाण प्रमेय नय और निक्षेपके सम्बन्धमें संक्षेपमें कुछ खास मुद्देकी बातोंपर प्रकाश डालकर यह प्रस्तावना समाप्त की जाती है। ) संस्कृत महाविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी २६।३१५८ -महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य एम. ए. . (१) गा० २८४७-५३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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