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विषयपरिचय: निक्षेपमीमांसा
निक्षेपोंमें नययोजना -
कौन निक्षेप किस नयसे अनुगत होता है इसका विचार अनेक प्रकारसे देखा जाता है -आ० सिद्धसेन ' और पूज्यपाद' सामान्यरूपसे द्रव्यार्थिकनयों के विषय नाम स्थापना और द्रव्य इन तीन निक्षेपोंको तथा पर्यायार्थिकनयों का विषय केवल भावनिक्षेपको कहते हैं । अकलङ्कदेव का भी यही अभिप्राय है । इतनी विशेषता है कि सिद्धसेन संग्रह और व्यवहारको द्रव्यार्थिकनय कहते हैं; क्योंकि इनके मत से नैगमका संग्रह और व्यवहारमें अन्तर्भाव हो जाता है। पूज्यपाद नैगमनयको स्वतन्त्र मानते हैं अतः इनके मतसे तीनों द्रव्यार्थिक नय हैं । दोनोंके मतसे ऋजुसूत्र आदि चारों नय पर्यायार्थिक हैं । अतः ये केवल भाव निक्षेपको विषय करते हैं ।
आ० पुष्पदन्त भूतबलिने षट्खंडागम आदिमें तथा आ० यतिवृषभ ने कषायपाहुडके चूर्णि सूत्रों में इसका कुछ विशेष विवेचन किया है। वे नैगम संग्रह और व्यवहार इन तीनों नयोंमें चारों ही निक्षेपों को स्वीकार करते हैं । भावनिक्षेपके विषय में आ० वीरसेन'ने लिखा है कि कालान्तरस्थायी व्यञ्जनपर्यायकी अपेक्षा से जो कि अपनी अनेक अर्थपर्यायों में व्याप्त होनेके कारण 'द्रव्य' व्यपदेश पा सकती है, भावनिक्षेप बन जाता है । अथथा द्रव्यार्थिकनय भी गौग रूपसे पर्यायको विषय करते हैं । अतः उनका विषय भावनिक्षेप हो सकता है ।
ऋजुसूत्र नय स्थापना के सिवा अन्य तीन निक्षेपोंका विषय करता है। चूँकि स्थापना' सादृश्यमूलक अभेद बुद्धिसे होती है और ऋजुसूत्रनय सादृश्यको विषय नहीं करता, अतः इसकी दृष्टिमें स्थापना निक्षेप नहीं बनता । कालान्तरस्थायी व्यञ्जन पर्यायको वर्तमान रूपसे ग्रहण करनेवाले अशुद्ध ऋजुसूत्रनयमें द्रव्यनिक्षेप भी सिद्ध हो जाता है । इसी तरह वाचक शब्दकी प्रतीतिके समय उसके वाच्यभूत अर्थकी उपलब्धि होनेसे ऋजुसूत्रनय नामनिक्षेपका भी स्वामी हो जाता है ।
तीनों शब्दनय नाम और भाव इन दो निक्षेपोंको विषय करते हैं । इन शब्दनयोंका विषय लिङ्गादि भेदसे भिन्न वर्तमान पर्याय हैं, अतः इनमें अभेदाश्रयी द्रव्यनिक्षेप नहीं बन सकता ।
जिनभद्रगणि' ऋजुसूत्रनयको द्रव्यार्थिक मानकर द्रव्यार्थिकनयमें चारों निक्षेप घटा लेते हैं । वे ऋजुसूत्र नय में स्थपना निक्षेप सिद्ध करते समय लिखते हैं कि ऋजुसूत्रनय निराकार द्रव्यको भावमें हेतु होने के कारण जब विषय कर लेता है तब वह साकार स्थापना को विषय क्यों नहीं करेगा ? क्योंकि मूर्ति में स्थापित इन्द्रके आकारसे भी इन्द्र विषयक भाव उत्पन्न होता है । अथवा ऋजुसूत्रनय नामनिक्षेपको स्वीकार करता है यह निर्विवाद है | नाम निक्षेप या तो इन्द्रादि संज्ञारूप होता है या इन्द्रार्थसे शून्य वाच्यार्थ रूप | अतः जब दोनों ही प्रकार के नाम भावके कारण होनेसे ऋजुसूत्रनयके विषय हो सकते हैं तो इन्द्राकार स्थापनाको भी भाव में हेतु होने के करण ऋजुसूत्रनयका विषय होना चाहिए । इन्द्र शब्दका इन्द्र भावके साथ तो केवल वाच्यावाचक-सम्बन्ध ही संभव है जो कि एक दूरवर्ती सम्बन्ध है किन्तु अपने आकार के साथ इन्द्रार्थका तो एक प्रकारसे तादात्म्यसम्बन्धसा हो सकता है जो कि वाच्यवाचकसम्बन्धसे अधिक सन्निकट है । अतः नाम को विषय करनेवाला ऋजुसूत्र स्थापनाको भी विषय कर सकता है । विशेषावश्यक भाष्यमें ऋजुसूत्रनय में द्रव्यनिक्षेप सिद्ध करनेके लिये अनुयोगद्वारसूत्र (१४) का प्रमाण देखर लिखा है कि ऋजुसूत्रनय वर्तमानग्राही होने में एक अनुपयुक्त देवदत्त आदिको आगमद्रव्यनिक्षेप मानता है । वह उसमें अतीतादि
(२) सर्वार्थसि० १६ |
(१) सन्मति ० १।६ । (३) सिद्धिवि० १२/३ | ( ४ ) प्रकृति अनुयोगद्वार पृ० ८६२ । (६) धवला पु० १ पृ० १४ । जयध० पु० १ पृ० २६०। (८) विशेषा० भा० गा० २८४७-५३ ।
(९) जैनतर्कभा० पृ० २८
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(५) कसायपा० चू० जयध० पृ० २५९-६४ ॥ (७) जयध० पृ० २६३/
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