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________________ विषयपरिचय : नयमीमांसा-स्याद्वाद अपने स्वार्थको मुख्य रूपसे कहे यहाँ तक कोई हानि नहीं, पर यदि वह इससे आगे बढ़कर 'अपने ही स्वार्थ को सब कुछ मानकर शेषका निषेध करता है तो उसका ऐसा करना अन्याय है और वस्तुस्थितिका विपर्यास करना है। 'स्यात्' शब्द इसी अन्यायको रोकता है और न्याय्य वचनपद्धतिकी सूचना देता है । वह प्रत्येक वाक्यके साथ अन्तर्गर्भ रहता है और गुप्त भावसे प्रत्येक वाक्यको मुख्यगौणभावसे अनेकान्त अर्थका प्रतिपादक बनाता है। स्यात्' निपात है। निपात द्योतक भी होते हैं और वाचक भी। यद्यपि स्यात् शब्द अनेकान्त सामान्यका वाचक होता है फिर भी अस्ति आदि विशेष धर्मोका प्रतिपादन करनेके लिये 'अस्ति' आदि धर्मवाचक शब्दोंका प्रयोग करना ही पड़ता है । तात्पर्य यह है कि 'स्यात् अस्ति' वाक्य में 'अस्ति' पद अस्तित्व धर्मका वाचक है तो 'स्यात्' शब्द 'अनेकान्त' का । वह उस समय अस्ति से भिन्न अन्य अशेष धर्मोंका प्रतिनिधित्व करता है। जब 'स्यात्' अनेकान्तका द्योतन करता है तो 'अस्ति' आदि पदोंके प्रयोगसे जिन अस्तित्व आदि धर्मोका प्रतिपादन किया जा रहा है वे 'अनेकान्त' रूप हैं यह द्योतन 'स्यात्' शब्द करता है। यदि यह पद न हो तो 'सर्वथा अस्तित्व' रूप एकान्तकी शंका हो जाती है। यद्यपि स्यात् और कथंचित्का अनेकान्तात्मक अर्थ इन शब्दोंके प्रयोग न करने पर भी कुशल वक्ता समझ लेता है परन्तु वक्ता को यदि अनेकान्त वस्तुका दर्शन नहीं हैं तो वह एकान्तके जालमें भटक सकता है अतः उसे आलोक स्तम्भके समान इस 'स्यात्' ज्योतिकी नितान्त आवश्यकता है। स्याद्वाद सुनयका निरूपण करनेवाली विशिष्ट भाषा पद्धति है। 'स्यात्' शब्द यह सुनिश्चित रूप से बताता है कि वस्तु केवल इसी धर्म वाली ही नहीं है, उसमें इसके अतिरिक्त धर्म भी विद्यमान हैं। उसके अविवक्षित गुणधर्मोंके अस्तित्वकी रक्षा 'स्यात्' शब्द करता है । 'रूपवान् घटः' में 'स्यात्' शब्द 'रूपवान् के साथ नहीं जुटता, क्योंकि रूपके अस्तित्वकी सूचना तो 'रूपवान्' शब्द स्वयं ही दे रहा है, किन्तु अन्य अविवक्षित शेष धर्मों के साथ उसका अन्वय है, वह 'रूपवान्'को पूरे घड़े पर अधिकार जमानेसे रोकता है और साफ कह देता है कि घड़ा बहुत बड़ा है, उसमें अनन्त धर्म हैं । रूप भी उनमेंसे एक है। रूपकी विवक्षा होनेसे अभी रूप हमारी दृष्टि में मुख्य है और वही शब्दके द्वारा वाच्य बन रहा है पर रसकी विवक्षा होनेपर वह गौण राशिमें शामिल हो जायगा और रस प्रधान बन जायगा । इस तरह समस्त शब्द गौणमुख्यभावसे अनेकान्त अर्थके प्रतिपादक हैं । इसी सत्यका उद्घाटन स्यात् शब्द सदा करता रहता है । 'स्यात्' शब्द एक सजग प्रहरी है, जो उच्चरित धर्मको इधर-उधर नहीं जाने देता । वह अविवक्षित धर्मों के अधिकारका संरक्षक है। इसलिये जो लोग स्यात्का रूपवान्के साथ अन्वय करके और उसका शायद संभावना और कदाचित् अर्थ करके घड़ेमें रूपकी स्थितिको भी संदिग्ध बनाना चाहते हैं वे वस्तुतः प्रगाढ भ्रममें हैं। इसी तरह 'स्यादस्ति घटः' वाक्यमें 'अस्ति' यह अस्तित्व अंश घटमें सुनिश्चित रूपसे विद्यमान है। 'स्यात्' शब्द उस अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं बनाता । किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थितिकी सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मों के गौणसद्भावका प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है कि कहीं अस्ति नामका धर्म, जिसे शब्दसे उच्चरित होनेके कारण प्रमुखता मिली है, पूरी वस्तुको ही न हडप जाय, अपने अन्य नास्ति आदि सहयोगियों के स्थानको समाप्त न कर दे । इसलिये वह प्रतिवाक्यमें चेतावनी देता रहता है कि हे भाई अस्ति, तुम वस्तुके एक अंश हो, तुम अपने अन्य नास्ति आदि भाइयोंके हकको हड़पनेकी कुचेष्टा नहीं करना । इस भयका कारण है कि प्राचीनकाल से 'नित्य ही है', 'अनित्य ही है' आदि हड़पू प्रकृतिके अंशवाक्योंने वस्तु पर पूर्ण अधिकार जमाकर अनधिकार चेष्टा की है और जगतमें अनेक तरहसे वितण्डा और संघर्ष उत्पन्न किये हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थके साथ तो अन्याय हुआ ही है पर इस वाद-प्रतिवादने अनेक कुमतवादोंकी सृष्टि करके अहंकार हिंसा संघर्ष अनुदारता और असहिष्णुता आदिसे विश्वको अशान्त और संघर्षपूर्ण हिंसा-ज्वालामें पटक दिया है । स्यात् शब्द वाक्यके उस जहरको निकाल देता है जिससे अहंकारका सर्जन होता है। 'स्यात्' शब्द एक ओर एक निश्चित अपेक्षासे जहाँ अस्तित्वकी स्थिति सुदृढ़ और सहेतुक बनाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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