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________________ प्रस्तावना है वहाँ उसकी उस सर्वहरा प्रवृत्तिको भी नष्ट करता है जिससे वह पूरी वस्तुका मालिक बनना चाहता है । वह न्यायधीशकी तरह तुरन्त कह देता है कि-हे अस्ति, तुम अपनी अधिकार सीमाको समझो । स्वद्रव्य क्षेत्र काल और भावकी दृष्टि से जिस प्रकार तुम घटमें रहते हो उसी तरह परद्रव्य क्षेत्रादिकी अपेक्षा नास्ति नामका तुम्हारा सगा भाई भी उसी घटमें रहता है, घटका परिवार बहुत बड़ा है । अभी तुम्हारा नाम लेकर पुकारा गया है, इसका इतना ही अर्थ है कि इस समय तुमसे काम है, तुम्हारा प्रयोजन है, तुम्हारी मुख्यता है, तुम्हारी विवक्षा है; पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि तुम अपने समानाधिकारी भाइयों के सद्भावको ही उखाड़कर फेंकनेका दुष्प्रयास करो । वास्तिवक बात तो यह है कि-यदि परकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस घड़ेमें तुम रहते हो वह घड़ा 'घड़ा' ही न रह जायगा किन्तु कपड़ा आदि परपदार्थरूप हो जायगा । अतः तुम्हें अपनी स्थितिके लिये भी यह आवश्यक है कि तुम अन्य धर्मोंकी वास्तविक स्थितिको समझो। तुम उनकी हिंसा न कर सको इसके लिये अहिंसाका प्रतीक 'स्यात्' शब्द तुमसे पहिले ही वाक्यमें लगा दिया जाता है। भाई अस्ति, यह तुम्हारा दोष नहीं है। तुम तो बराबर अपने नास्ति आदि भाइयोंके साथ हिलमिलकर अनन्तधर्मा वस्तु में रहते हो, सब धर्मभाई अपने-अपने स्वरूपके सापेक्ष भावसे वस्तुमें रह रहे हैं, पर इन फूट डालनेवाले वस्तुद्रष्टाओंको क्या कहा जाय ? ये अपनी एकांगी दृष्टि से तुममें फूट डालना चाहते हैं और प्रत्येक धर्मको प्रलोभन देकर वस्तुका . पूरा अधिकार देना चाहते हैं और चाहते हैं कि तुममें भी अहंकारपूर्ण स्थिति उत्पन्न होकर आपसमें भेदभाव एवं हिंसाकी सृष्टि हो । बस 'स्यात्' शब्द एक अञ्जनशलाका है जो उनकी दृष्टिको विकृत नहीं होने देता । वह उसे निर्मल और पूर्णदर्शी बनाता है । इस अविवक्षित संरक्षक, दृष्टि विषापहारी, सचेतक प्रहरी, अहिंसा और सत्यके प्रतीक, जीवन्त न्यायरूप, शब्दको सुधामय करनेवाले तथा सुनिश्चित अपेक्षाके द्योतक 'स्यात्' शब्दके स्वरूपके साथ हमारे दार्शनिकोंने न्याय तो किया ही नहीं किन्तु उसके स्वरूपका शायद, सम्भव, कदाचित् जैसे भ्रष्ट पर्यायोंसे विकृत करनेका अशोभन प्रयत्न अवश्य किया है और आजतक किया जा रहा है। सबसे थोथा तर्क तो यह दिया जाता है कि 'घड़ा जब अस्ति है, तो नास्ति कैसे हो सकता है ? घड़ा जब एक है तो अनेक कैसे हो सकता है ?' यह तो प्रत्यक्षविरोध है; पर विचार तो करो-घड़ा आखिर घड़ा ही तो है, कपड़ा तो नहीं है, कुरसी तो नहीं है टेविल तो नहीं है। तात्पर्य यह कि वह घटभिन्न अनन्त पदार्थोंरूप नहीं है। तो यह कहने में आपको क्यों संकोच होता है कि घड़ा अपने स्वरूपसे अस्ति है और स्वभिन्न पररूपोंसे नास्ति है। इस घड़ेमें अनन्त पररूपोंकी अपेक्षा 'नास्तित्व' है, अन्यथा दुनियाँमें कोई शक्ति ऐसी नहीं जो घड़ेको कपड़ा आदि होनेसे रोक सके। यह नास्तित्व धर्म ही घड़ेको घड़ेके रूपमें कायम रखता है। इसी 'नास्ति' धर्मकी सूचना 'अस्ति' के प्रयोगकालमें 'स्यात्' शब्द देता है। इसी तरह घड़ा समग्रभावसे एक होकर भी अपने रूप रस गंध स्पर्श छोटा बड़ा हलका भारी आदि अनन्त गुण धर्मोकी दृष्टि से अनेक रूपोंमें दिखाई देता है या नहीं ? यह आप स्वयं बतावें । यदि अनेक रूपमें दिखाई देता है तो आपको वह मानने और कहनेमें क्यों कष्ट होता है कि घड़ा द्रव्यरूपसे एक होकर भी अपने गण धर्म शक्ति आदिकी दृष्टि से अनेक है। जब प्रत्यक्षसे वस्तुमें अनेक विरोधी धर्मोंका स्पष्ट प्रतिभास हो रहा है, वस्तु स्वयं अनन्त विरोधी धर्मोंका अविरोधी क्रीडास्थल है तब हमें क्यों संशय और विरोध उत्पन्न करना चाहिए। हमें उसके स्वरूपको विकृतरूपमें देखनेकी दुर्दृष्टि तो नहीं करनी चाहिए। हम उस महान् 'स्यात्' शब्दको, जो वस्तुके इस पूर्णरूपकी झाँकी सापेक्षभावसे बताता है, विरोध संशय जैसी गालियोंसे दुरदुराते हैं, किमाश्चर्यमतः परम् ! यहाँ धर्मकीर्तिका यह श्लोकांश ध्यानमें आ जाता है कि “यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्रके वयम्"-प्रमाण वा० ३।२१० । अर्थात् यदि यह चित्र-रूपता-अनेकधर्मता वस्तुको स्वयं रुच रही है, उसके बिना उसका अस्तित्व ही संभव नहीं है तो हम बीचमें काजी बननेवाले कौन हैं ? जगत्का एक-एक कण इस अनन्तधर्मताका आकर है। हमें तो सिर्फ अपनी दृष्टिको ही निर्मल और विशाल बनानेकी आवश्यकता है। वस्तुमें विरोध नहीं है, विरोध तो हमारी दृष्टियोंमें है। और इस दृष्टिविरोधकी अमृत (गुरवेल) स्यात् शब्द है, जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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