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________________ विषयपरिचय : नयमीमांसा - स्याद्वाद १५३ या नागिन और सर्पिणी तो नहीं है। जैसे इस भावनाको तत्त्वज्ञानका रूप देकर वस्तुविपर्यास नहीं किया जाता उसी तरह कुन्दकुन्दकी आध्यात्म भावना को हमें भावनाके रूपमें ही देखना चाहिये तत्त्वज्ञानके रूपमें नहीं । उनके तत्त्वज्ञानका ठोस निरूपण यदि प्रवचनसार और पंचास्तिकाय आदिमें देखनेको मिलता है तो आत्मशोधनकी प्रक्रिया समयसार में । निश्चय और व्यवहार नयोंका वर्णन वस्तुतत्त्व के स्वरूप निरूपणसे उतना सम्बन्ध नहीं रखता जितना हेयोपादेय-विवेचनसे । 'स्त्री किन - किन निमित्त और उपादानोंसे उत्पन्न हुई है' यह वर्णन अध्यात्म भावनाओं में नहीं मिलता किन्तु 'स्त्रीको हम किस रूपमें देखें' जिससे विषयविरक्ति हो, यह प्रक्रिया उसमें बताई जाती है । अतः यह विवेक करनेकी पूरी-पूरी आवश्यकता है कि कहाँ वस्तुतत्त्वका निरूपण है और कहाँ भावनात्मक वर्णन है । मुझे यह स्पष्ट करनेमें कोई सङ्कोच नहीं है कि कभी-कभी असत्य भावनाओं से भी सत्यकी प्राप्तिका मार्ग अपनाया जाता है जैसे कि स्त्रीको नागिन और सर्पिणी समझकर उससे विरक्ति करानेका । अन्ततः भावना, भावना है, उसका लक्ष्य वैज्ञानिक वस्तुतत्त्व के निरूपणका नहीं है, किन्तु है अपने लक्ष्य की प्राप्तिका; जब कि तत्त्वज्ञानके निरूपणकी दिशा वस्तुतत्त्वके विश्लेषणपूर्वक वर्णनकी होती है । उसे अमुक लक्ष्य बने या बिगड़े यह चिन्ता नहीं होती । अतः हमें आचार्योंकी विभिन्न नयदृष्टियों का यथावत् परिज्ञान करके तथा एक आचार्यकी भी विभिन्न प्रकरणों में क्या विवक्षा है यह सम्यक् प्रतीति करके ही : सर्वनय समूहसाध्य अनेकान्त तीर्थकी व्याख्या में प्रवृत्त होना चाहिए। एक नय यदि नयान्तरके अभिप्रायका तिरस्कार या निराकरण करता है तो वह सुनय नहीं रहता दुर्णय बनकर अनेकान्तका विघातक हो जाता है । भूतबलि पुष्पदन्त उमास्वामी समन्तभद्र और अकलङ्कदेव आदि आचार्योंोंने जो जैन-दर्शनका बुनियादी पायेदार निर्बाध तथा सुदृढ़भूमिक निरूपण किया है वह यों ही 'व्यवहार' कहकर नहीं उड़ाया जा सकता । कोई भी धर्म अपने 'तत्त्वज्ञान' और 'दर्शन' के बिना केवल नैतिक नियमोंके सिवाय और क्या रह जाता है ? ईसाई धर्म और इस्लामधर्म अपने 'दर्शन' के बिना आज परीक्षाप्रधानी मानवको अपनी ओर नहीं खींच पाते । जैन दर्शनने प्रमेयको अनेकान्तरूपता, उसके दर्शनको 'अनेकान्त दर्शन' और उसके कथनकी पद्धतिको 'स्याद्वाद भाषा' का जो रूप देकर आजतक भी 'जीवित दर्शन' का नाम पाया है उसे 'व्यवहार' के गड्ढे में फेंकनेसे तीर्थ और शासनकी सेवा नहीं होगी। जैन-दर्शन तो वस्तु-व्यवस्था के मूलमें ही लिखता है कि"खपरात्मोपादाना पोहनापाद्यत्वं हि वस्तुनो वस्तुत्वम् ।" अर्थात् स्वोपादान यानी स्वास्तित्वके साथ ही साथ परकी अपेक्षा नास्तित्व भी वस्तु के लिये आवश्यक है । यह अस्ति और नास्ति अनेकान्तदर्शनका क ख है, जिसकी उपेक्षा वस्तुस्वरूपकी विघातक होगी । जैन दर्शनने 'वस्तु क्या है, यह जो पर्यायोंका उत्पाद और व्यय है उसमें निमित्त उपादानकी क्या स्थिति है' इत्यादि समस्त कार्यकारणभाव, उनके जाननेकी क्या पद्धति हो सकती है इस समस्त ज्ञापकतत्त्वका पूरा-पूरा निरूपण किया हैं । इस कारणतत्त्व और ज्ञापकतत्त्व में भावनाका स्थान नहीं है । इसमें तो कठोर परीक्षा और वस्तुस्थिति के विश्लेषणकी पद्धतिका प्रामुख्य है । अतः जहाँ वस्तुतत्त्वका निरूपण हो वहाँ दर्शनकी प्रक्रिया से उसका विवेचन कीजिए और उत्पन्न तथा ज्ञापित वस्तुमें किस प्रकारकी भावना या चिन्तनसे हम रागद्वेषसे परे वीतरागताकी ओर जा सकते इस अध्यात्म भावनाको समयसारसे परखिए । भावना और दर्शनका अपना अपना निश्चित क्षेत्र है उसे एक दूसरेसे न मिलाइए । स्याद्वाद वास्तव बहुत्ववादी जैनदर्शनने सामान्यरूपसे यावत् सत्को परिणामी नित्य माना है । प्रत्येक सत् अनन्तधर्मात्मक है | उसका पूर्णरूप वचनों के अगोचर है । कोई ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तुके पूरे रूपको स्पर्श कर सकता हो । 'सत्' शब्द भी वस्तुके एक 'अस्तित्व' धर्म को कहता है, शेष नास्तित्व आदि धर्मों को नहीं । वस्तुस्थिति ऐसी होनेपर भी उसको समझने समझानेका प्रयत्न मानवने किया ही है (१) त० वा० १।६ । २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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