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प्रस्तावना
भी नैश्चयिक ही माननी चाहिए। एक परिभाषा व्यवहारकी लेना और एक परिभाषा निश्चयकी पकड़कर घोलघाल करनेसे वस्तुका विपर्यास ही होता है ।
इसी तरह व्यावहारिक सर्वज्ञतासे नियतिवादको फलित करके उसे निश्चयनयका विषय बनाकर पुरुषार्थको रेड मारना तीर्थोच्छेदकी ही कक्षामें आता है। तीर्थ प्रवर्तनका फल यह है कि व्यक्ति उसका आश्रय लेकर असत्से सत् , अशुभसे शुभ, अशुद्धसे शुद्ध और तमसे प्रकाशकी और जावें । परन्तु इस नियतिवादमें जब अपने अगले क्षणमें परिवर्तन करनेकी शक्यता ही नहीं है तब किसलिये तीर्थ-धर्मका
आश्रय लिया जाय ? दीक्षा-शिक्षा और संस्कारका आखिर प्रयोजन ही क्या रह जाता है ? इस तरह जिनवरके दुरासद नयचक्रको नहीं समझकर और समग्र जैनशासनकी सर्वनयमयताके परिपूर्ण स्वरूपका ध्यान नहीं करके कहीकी ईट और कहींका रोड़ा लेनेमें न वस्तुतत्त्वकी रक्षा है और न तीर्थकी प्रभावना ही।
आ० कुन्दकुन्दकी अध्यात्मभावना-आ० कुन्दकुन्दने अपने समयप्राभूतमें अध्यात्म-भावनाका वर्णन किया है। उनका कहना है कि आत्मसंशोधन और शुद्धात्मकी प्राप्ति के लिये हमें इस प्रकारकी भावना करनी चाहिए कि-निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थ है। जिस गाथा' में उन्होंने व्यवहारको अभूतार्थ और निश्चयको भूतार्थकी बात कही है उसके पहिलेकी दो गाथाओंमें वे आत्मभावना करनेकी बात कहते हैं। इतना ही नहीं वे निश्चयनयसे व्यवहारका निषेध करके निर्वाणकी प्राप्तिके लिये निश्चयनयमें लीन होनेका उपदेश करते हैं
"एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण । णिच्छयणयसल्लीणा मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥"
-समयप्रा० गा० २९६ । अर्थात्-इस तरह निश्चयनयकी दृष्टि से व्यवहारनयका प्रतिषेध समझना चाहिये । निश्चयनयमें लीन मुनिजन निर्वाण पाते हैं।
इसी तरह उन्होंने और भी मोक्षमार्गी साधकको जीवनदर्शन की तथा आत्मसंशोधनकी प्रक्रिया और भावनाएँ बताई हैं । जिनसे चित्तको भावित कर साधक शान्तिलाभ कर सकता है। परन्तु भावनासे वस्तुस्वरूपका निरूपण नहीं होता। वही कुन्दकुन्द जब वस्तुस्वरूपका निरूपण करने बैठते हैं तो प्रवचनसार और पंचास्तिकायका समस्त तत्त्ववर्णन उभयनयसमन्वित अनेकान्त दृष्टिसे होता है ।
भावनाको तत्त्वज्ञानका रूप देनेसे जो विपर्यास और खतरा होता है तथा उसके जो कुपरिणाम होते हैं वे किसी भी दर्शनके इतिहासके विद्यार्थीसे छिपे नहीं हैं। बुद्धने स्त्री आदिसे विरक्तिके लिए उसमें क्षणिक परमाणुपुञ्ज स्वप्नोपम मायोपम शून्य आदिकी भावना करनेका उपदेश दिया था । पीछे उन एक एक भावनाओं को तत्त्वज्ञानका रूप देनेसे क्षणिकवाद, परमाणुपुञ्जवाद, शून्यवाद आदि वादोंकी सृष्टि हो गई और पीछे तो उन्हें दर्शनका रूप ही मिल गया । जैन परम्परामें भी मुमुक्षुओंको अनित्य अशरण अशुचि आदि भावना से चित्तको भावित करनेका उपदेश दिया गया है। इन्हें अनुप्रेक्षा संज्ञा भी इसीलिए दी गई है कि इनका बार-बार चिन्तन किया जाय । अनित्य भावना में वही विचार तो हैं जो बुद्धने कहे थे कि-जगत् क्षणभंगुर है अशुचि है स्वप्नवत् है माया है मिथ्या है आदि। इसी तरह स्त्रीसे विरक्ति के लिए उसमें 'नागिन सर्पिणी करककी खान और विषवेल' आदिकी भावना करते हैं, पर इससे वह नागिन या सर्पिणी तो नहीं बन जाती (१) "ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो हु सुद्धणओ ।
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्टी हवदि जीवो ॥"-समयप्रा० गा० १३ । (२) “णाणम्हि भावणा खलु कादवा दसणे चरित्ते य ।
ते पुण तिण्णिवि आदा तम्हा कुण भावणं आदे ॥ जो आदभावणमिणं णिञ्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि। सो सम्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥"-समयप्रा० गा० ११।१२।
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