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________________ १४२ प्रस्तावना यह विधान यह मानकर किया जाता है कि प्रत्येक शब्द वस्तुके किसी न किसी धर्मका वाचक होता है। इसीलिए तत्त्वार्थभाष्य (११३५) में 'ये नय क्या एक वस्तुके विषयमें परस्पर विरोधी तन्त्रों के मतवाद हैं या जैनाचार्योंके ही परस्पर मतभेद हैं ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए स्पष्ट लिखा है कि 'न तो ये तन्त्रान्तरीय मतवाद हैं और न आचार्यों के पारस्परिक मतभेद हैं किन्तु ज्ञेय अर्थके नाना अध्यवसाय हैं।' एक ही वस्तुको अपेक्षाभेदसे या अनेक दृष्टिकोणोंसे ग्रहण करनेवाले विकल्प हैं। ये हवाई कल्पनाएँ नहीं हैं और न शेखचिल्लीके विचार ही हैं किन्तु अर्थको नानाप्रकारसे जाननेवाले अभिप्रायविशेष हैं। ये निर्विषय न होकर ज्ञान शब्द या अर्थ किसी-न-किसीको विषय अवश्य करते हैं। इसका विवेक करना ज्ञाताका कार्य है। जैसे एक ही लोक सत्की अपेक्षा एक, जीव और अजीवके भेदसे दो, द्रव्य गुण और पर्यायके भेदसे तीन, चार प्रकारके दर्शनका विषय होने चार, पाँच अस्तिकायोंकी अपेक्षा पाँच और छह द्रव्योंकी अपेक्षा छह प्रकारका कहा जा सकता है। ये अपेक्षाभेदसे होनेवाले विकल्प हैं मात्र मतभेद या विवाद नही हैं उसी तरह नयवाद भी अपेक्षाभेदसे होनेवाले वस्तुके विभिन्न अध्यवसाययानी निर्णय हैं। दो नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-इस तरह सामान्यतया अभिप्रायोंकी अनन्तता होनेपर भी इन्हें दो विभागोंमें बाँटा जा सकता है एक अभेदको ग्रहण करनेवाले और दूसरे भेदको ग्रहण करनेवाले । वस्तुमें स्वरूपतः अभेद है, वह अखण्ड है और अपनेमें एक मौलिक है। उसे अनेक गुण पर्याय और धर्मों के द्वारा अनेकरूपमें ग्रहण किया जाता है। अभेदग्राहिणी दृष्टि द्रव्यदृष्टि कही जाती है और भेदग्राहिणी दृष्टि पर्यायह ष्टि । द्रव्यको मुख्यरूपसे ग्रहण करनेवाला नय द्रव्यार्थिक द्रव्या स्तिक या अव्युच्छत्ति नय कहलाता है और पर्यायको ग्रहण करनेवाला नय पर्यायार्थिक पर्यायास्तिक या व्युच्छित्तिनय है । अभेद अर्थात् सामान्य और भेद यानी विशेष । वस्तुओंमें अभेद और भेदकी कल्पनाके दो प्रकार हैं। पहिला तो एक अखण्ड मौलिक द्रव्यमें अपनी द्रव्यशक्तिके कारण विवक्षित अभेद द्रव्य या ऊर्ध्वता सामान्यरूप है। यह अपनी कालक्रमसे होनेवाली क्रमिक पर्यायोंमें ऊपरसे नीचे तक व्याप्त रहनेके कारण ऊर्ध्वता सामान्य कहलाता है। यह जिस प्रकार अपनी क्रमिक पर्यायोंको व्याप्त करता है उसी तरह अपने सहभावी गुण और धर्मोंको भी व्याप्त करता है। दूसरी अभेद कल्पना विभिन्नसत्ताक अनेक द्रव्योंमें संग्रहकी दृष्टिसे की जाती है । यह कल्पना शब्दव्यवहारके निर्वाहके लिए सादृश्यकी अपेक्षासे की जाती है । अनेक स्वतन्त्रसत्ताक मनुष्यों में सादृश्यमूलक मनुष्यत्व जातिकी अपेक्षा मनुष्यत्व सामान्यकी कल्पना तिर्यक् सामान्य कहलाती है । यह अनेक द्रव्योंमें तिरछी चलती है। एक द्रव्यकी पर्यायोंमें होनेवाली भेदकल्पना पर्यायविशेष कहलाती है तथा विभिन्न द्रव्योंमें प्रतीत.भेद व्यतिरेकविशेष कहा जाता है। इस प्रकार दोनों प्रकारके अभेदोंको विषय करनेवाली द्रव्य दृष्टि है और भेदोंको विषय करनेवाली पर्यायदृष्टि है। परमार्थ और व्यवहार-परमार्थतः प्रत्येक द्रव्यगत अभेदको ग्रहण करनेवाली ही दृष्टि द्रव्यार्थिक और प्रत्येक द्रव्यगत पर्यायभेदको जाननेवाली ही दृष्टि पर्यायार्थिक होती है । चूँकि अनेक द्रव्यगत अभेद औपचारिक और व्यावहारिक है अतः इनमें सादृश्यमूलक अभेद भी व्यावहारिक ही है पारमार्थिक नहीं । अनेक द्रव्योंका भेद पारमार्थिक ही है । 'मनुष्यत्व' मात्र सादृश्यमूलक कल्पना है। कोई एक ऐसा मनुष्यत्व नामका पदार्थ नहीं है जो अनेक मनुष्य द्रव्योंमें मोतियों में सूतकी तरह पिरोया गया हो। सादृश्य भी अनेकनिष्ठ धर्म नहीं है किन्तु प्रत्येक व्यक्तियोंमें रहता है। उसका व्यवहार अवश्य परसापेक्ष है, किन्तु स्वरूप तो प्रत्येकनिष्ठ ही है। अतः किन्हीं भी सजातीय या विजातीय अनेक द्रव्योंका अभेदमूलक संग्रह केवल व्यावहारिक है पारमार्थिक नहीं । अनन्त पुद्गल परमाणु द्रव्योंको पुद्गलत्वेन एक कहना व्यवहारके लिये है। दो पृथक् परमाणुओंकी सत्ता कभी भी एक नहीं हो सकती। एक द्रव्यगत ऊर्ध्वता सामान्यको छोड़कर जितनी भी अभेद कल्पनाएँ अवान्तर या महासामान्यके नामसे की जाती है वे सब व्यावहारिक हैं। उनका वस्तुस्थितिसे इतना ही सम्बन्ध है कि वे शब्दोंके द्वारा उन-उन पृथक वस्तुओंका संग्रह कर रही हैं। जिस (१) सिद्धिवि० १०॥४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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