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________________ विषयपरिचय : नयमीमांसा १४३ प्रकार अनेक द्रव्यगत अभेद व्यावहारिक है उसी तरह एक द्रव्यमें पर्यायभेद वास्तविक होकर भी गुणभेद और धर्मभेद उस अखंड अनिर्वचनीय वस्तुको समझने समझाने और कहने के लिये किये जाते हैं । जिस प्रकार हम पृथसिद्ध द्रव्यों का नि तरह एक द्रव्यके गुण और धर्मोंको नहीं। अतः परमार्थ द्रव्यार्थिकनय एकद्रव्यगत अभेदको विषय करता है, और परमार्थ पर्यायार्थिक एकद्रव्यकी क्रमिक पर्यायोंको। व्यवहारद्रव्यार्थिक अनेक द्रव्यगत कल्पित अभेदको जानता है और परमार्थ पर्यायाथिक दो द्रव्यों के परस्पर भेदको जानता है। व्यवहार पर्यायार्थिककी मर्यादा एक द्रव्यगत गुणभेद और धर्मभेद तक है। द्रव्यास्तिक और द्रव्यार्थिक-तत्त्वार्थ वार्तिक (१।३३ ) में द्रव्यार्थिकके स्थानमें आनेवाला द्रव्यास्तिक और पर्यायार्थिकके स्थानमें आनेवाला पर्यायास्तिक शब्द इसी सूक्ष्म भेदको सूचित करता है। द्रव्यास्तिकका तात्पर्य है कि जो एकद्रव्यके परमार्थ अस्तित्वको विषय करे और तन्मूलक ही अभेदका प्रख्यापन करे। पर्यायास्तिक एक द्रव्यकी वास्तविक ऋमिक पर्यायोंके अस्तित्वको मानकर उन्हींके आधारसे भेद व्यवहार कराता है। इस दृष्टिसे अनेक द्रव्यगत परमार्थभेदको पर्यायार्थिक विषय करके भी उनके भेदको किसी द्रव्यकी पर्याय नहीं मानता । यहाँ पर्याय शब्दका प्रयोग व्यवहारार्थ है। तात्पर्य यह कि-एक द्रव्यगत अभेदको द्रव्यास्तिक और परमार्थ द्रव्यार्थिक, एकद्रव्यगत पर्यायभेदको पर्यायास्तिक और परमार्थ पर्यायार्थिक, अनेक द्रव्यों के सादृश्यमूलक अभेदको व्यवहार द्रव्यार्थिक तथा अनेकद्रव्यगत भेदको परमार्थ पर्यायार्थिक जानता है। अनेक द्रव्यगत भेदको हम 'पर्याय' शब्दसे व्यवहारके लिये ही कहते हैं। इस तरह भेदा भेदात्मक या अनन्त धर्मात्मक ज्ञेयमें ज्ञाताके अभिप्रायानुसार भेद या अभेदको मुख्य और इतरको गौण करके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंकी प्रवृत्ति होती है। कहाँ कौनसा भेद या अभेद विवक्षित है यह समझना वक्ता और श्रोताकी कुशलतापर निर्भर करता है । तीर्थंकरोंके द्वारा उपदिष्ट समस्त अर्थका संग्रह इन्हीं दो नयोंमें हो जाता है। उनका कथन या तो अभेदप्रधान होता है या भेदप्रधान । तीन और सात नय-जब हम प्रत्येक पदार्थको अर्थ शब्द और ज्ञानके आकारोंमें बाँटते हैं तो इनके ग्राहक ज्ञान भी स्वभावतः तीन श्रेणियोंमें बँट जाते हैं-ज्ञाननय अर्थनय और शब्दनय । कुछ व्यवहार केवल ज्ञानाश्रयी होते हैं, उनमें अर्थक तथाभूत होनेकी चिन्ता नहीं होती, वे केवल संकल्पसे चलते हैं जैसे आज महावीरजयंती है। अर्थक आधारसे चलनेवाले व्यवहारमें एक ओर नित्य एक और व्यापी रूपसे चरम अभेदकी : कल्पना की जा सकती है तो दूसरी ओर क्षणिकत्व परमाणुत्व और निरंशत्वकी दृष्टिसे अन्तिम भेदकी कल्पना । तीसरी कल्पना इन दोनों चरम कोटियोंके मध्य की है। पहिली कोटिमें सर्वथा अभेद-एकत्व स्वीकार करनेवाले औपनिषद अद्वैतवादी हैं तो दूसरी ओर वस्तुकी सूक्ष्मतम वर्तमान क्षणवर्ती अर्थपर्यायके ऊपर दृष्टि रखनेवाले क्षणिक निरंश परमाणुवादी बौद्ध हैं। तीसरी कोटिमें पदार्थको नानारूपसे व्यवहारमें लानेवाले नैयायिक वैशेषिक आदि हैं। तीसरे प्रकारके व्यक्ति हैं भाषाशास्त्री । ये एक ही अर्थ में विभिन्न शब्दोंके प्रयोगको मानते हैं। परन्तु शब्दनय, शब्दभेदसे अर्थभेदको अनिवार्य समझता है । इन सभी प्रकारके व्यवहारोंके समन्वयके लिए जैन परम्पराने 'नय' पद्धति स्वीकार की है। नय का अर्थ हैअभिप्राय, दृष्टि , विवक्षा या अपेक्षा है। ज्ञाननय अर्थनय और शब्दनय-इनमें ज्ञानाश्रित व्यवहार का संकल्पमात्रग्राही नैगमनयमें समावेश होता है । अर्थाश्रित अभेद व्यवहारका जो "आत्मैवेदं सर्वम्", "एकस्मिन् वा विज्ञाते सर्व विज्ञातम्" आदि उपनिषद् वाक्यों से प्रकट होता है, संग्रह नयमें अन्तर्भाव किया गया है, इससे आगे तथा एक परमाणुकी वर्तमानकालीन एक अर्थपर्यायसे पहिले होने वाले यावत् मध्यवर्ती भेदोंको जिनमें न्यायवैशेषिकादि दर्शन शामिल हैं, व्यवहार नयमें शामिल किया गया है। अर्थकी आखिरी देशकोटि परमाणुरूपता तथा कालकोटि क्षणिकता को ग्रहण करनेवाली बौद्धदृष्टि ऋजुसूत्र नयमें स्थान पाती है। यहाँ तक अर्थको सामने रखकर भेदाभेद कल्पित हुए हैं। अब शब्दशास्त्रियोंका नम्बर आता है । काल कारक संख्या तथा धातुके साथ लगने वाले भिन्न-भिन्न उपसर्ग आदिके साथ प्रयुक्त होने वाले शब्दोंके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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