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विषयपरिचय : प्रमेयमीमांसा
१३५ सामान्यविशेषात्मकताका ही निरूपण होता है फिर भी 'सामान्यविशेषात्मक' विशेषणको पृथक् कहनेका प्रयोजन यही है कि पदार्थ में तिर्यक यानी सादृश्य सामान्य और व्यतिरेक विशेष भी है जो उसकी सामान्य विशेषात्मकताको परिपूर्ण करते हैं । अतः साधारणतया सामान्यविशेषात्मक कहनेसे तिर्यक्सामान्यात्मक और व्यतिरेकविशेषात्मक पदार्थका ग्रहण होता है और द्रव्यपर्यायात्मक कहनेसे ऊर्ध्वतासामान्य और पर्यायविशेषात्मक वस्तुका बोध होता है।
यद्यपि सामान्यविशेषात्मक कहनेसे द्रव्यपर्यायात्मकत्वका बोध हो जाता है फिर भी 'द्रव्यपर्यायात्मक' विशेषणसे यह सूचित होता है कि कोई भी पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मकता यानी उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मकता या परिणामीस्वभावके बाहर नहीं है । पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक न होकर भी सामान्यविशेषात्मक हो सकता है जैसे कि नैयायिक द्वारा स्वीकृत पृथिव्यादिके अणु । अतः समस्त पदार्थों में निरपवाद परिणामिरूपता सूचित करनेके लिये द्रव्यपर्यायात्मक विशेषण पृथक् दिया गया है । सामान्यविशेषात्मक विशेषण पदार्थके धर्मोको विषय करता है जब कि द्रव्यपर्यायात्मक विशेषण पदार्थके परिणमनका निर्देश करता है । इस तरह सामान्यविशेषात्मक आर द्रव्यपयोयात्मक पदार्थ प्रमाणका प्रमेय होता है। प्रमेयके भेद
जैन परम्परामें प्रमेय अर्थात् द्रव्यों के मूलतः दो भेद हैं एक चेतन और दूसरा अचेतन । चैतनद्रव्य आत्मा या जीव है और अचेतन पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और कालके भेदसे पाँच प्रकारके हैं ।
६ पुद्गल-रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले परमाणु पुद्गल द्रव्य हैं । ये अनन्त हैं। इनमें मूलतः पृथिवी, जल, अग्नि और वायु आदि भेद नहीं है । ये भेद तो जब अनेक पुद्गल परमाणु मिलकर स्कन्ध बनते हैं तब होते हैं । पुद्गल परमाणु जब स्कन्ध बनते हैं तब उनका रासायनिक बन्ध हो जाता है। उस समय उस स्कन्धमें जितने पुद्गल परमाणु सम्बद्ध हैं सबका लगभग एक जैसा परिणमन हो जाता है। और उसी औसत परिणमनके अनुसार स्कन्धौ रूपविशेष और रसविशेष आदिका व्यवहार होता है । जब किसी एक आम आदि स्कन्धमें सडाँद पैदा होती है तो इसका अर्थ है कि उस हिस्सेके परमाणु अब एक स्कन्ध अवस्थामें नहीं रहना चाहते, और वे धीरे-धीरे स्कन्धकी सत्ता समाप्त कर देते हैं। यह समस्त जगत इन्हीं पद्गल परमाणुओंके विविध परिणमनोंका खेल है । प्रतिसमय उनका कोई न कोई परिणमन करनेका निज स्वभाव है, अतः जब जैसी सामग्री मिलती है उसके अनुसार उनके विचित्र और अचिन्त्य परिणमन होते रहते हैं। पुद्गलका अर्थ है पूरण और गलन होना । यानी जिसमें कुछ आता रहे और जाता रहे ।
धर्म द्रव्य-एक लोकव्यापी अमूर्त द्रव्य जो गमनशील जीव और पुद्गलोंकी गतिमें सहायक होता है। यह यद्यपि गतिका प्रेरक नहीं होता पर इसके बिना गति नहीं हो सकती। . अधर्म द्रव्य-लोकव्यापी अमूर्त द्रव्य जो स्थितिशील जीव और पुद्गलोंकी स्थितिमें सहायक होता है। यह भी प्रेरक नहीं होता पर इसके बिना स्थिति नहीं हो सकती। इन दो द्रव्यों के माननेका प्रयो है कि अनन्त आकाशमें इस लोक-विश्वका अमुक आकार या सीमा तभी बन सकती है जब उस सीमाके आगे जीव और पुद्गल न पाये जाँय । इन द्रव्यों के अभावके कारण लोकको सीमाके आगे जीवादि द्रव्य नहीं पाये जाते। यानी लोक और अलोकका विभाग इन द्रव्योंके कारण होता है। इन पाँच अजीव या अचेतन द्रव्यों के अतिरिक्त अनन्त जीव-द्रव्य हैं।
आकाश द्रव्य-अनन्त अमूर्त एक द्रव्य है जिसमें समस्त द्रव्योंका अवगाह होता है। इसके दो विभाग अन्य द्रव्यों के अवस्थानकी अपेक्षा हो जाते हैं । जहाँतक अन्य द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है, जहाँ केवल आकाश ही आकाश है वह अलोकाकाश है।
काल द्रव्य-लोकाकाशव्यापी असंख्य कालाणु द्रव्य हैं, जो स्वयं तो परिवर्तन करते ही हैं साथ ही अन्य द्रव्योंके परिवर्तनमें निमित्त भी होते हैं । घड़ी, घण्टा, दिन आदि काल-व्यवहार इन्हींके निमित्तसे होता है।
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