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प्रस्तावना जीवका स्वरूप
भारतीय दर्शन ही क्या विश्वके दर्शनोंमें 'आत्मा' एक समस्या रही है। चार्वाकको छोड़कर शेष सभी दर्शनोंने जड़तत्त्वसे पृथक आत्मतत्त्व स्वीकार किया है जो परलोकगामी होता है तथा बन्धनमुक्त हो जाता है, भले ही उसे चित्तप्रवाह कहा हो या अन्य कोई संज्ञा दी हो। चार्वाक चैतन्यशक्ति तो मानता है पर उसका उद्गम पृथिवी जल आदि भूतचतुष्टयके विशिष्ट रासायनिक मिश्रणसे स्वीकार करता है। उसके मतसे पृथिवी जल अग्नि और वायुये चार ही मूल तत्त्व हैं। इनके समुदायसे शरीर इन्द्रियाँ आदि उत्पन्न होती हैं और उनसे चैतन्य अभिव्यक्त या उत्पन्न होता है । शरीरके नष्ट होते ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसके मतसे किसी परलोकगामी जीवकी सत्ता नहीं है।
वैदिक परम्परामें अन्न प्राण' इन्द्रिय' मन प्रज्ञा प्रज्ञान विज्ञान और आनन्द रूपमें आत्माका वर्णन मिलता है। फिर उसका चेतन "ब्रह्मके रूपमें भी निरूपण है। बृहदारण्यक उपनिषद् (४।४।२०) आदिमें इसका अजर अमृत अव्यय अज शाश्वतके रूपमें विस्तृत वर्णन आता है । इस तरह सामान्यतया उपनिषद् धारामें आत्माको स्वतन्त्र तत्त्व माननेका विचार बहुत प्राचीनकालसे चालू था । बुद्ध स्वयं अनात्मवादी थे। किन्तु उन्होंने अपने 'अनात्मवाद में उपनिषत्के नित्य शाश्वत आत्माका निषेध किया है न कि आत्माके अस्तित्वका ही । वे आत्माको जिस प्रकार नित्य या शाश्वत नहीं मानना चाहते थे उसी प्रकार चर्वाकोंकी तरह उच्छिन्न भी नहीं मानना चाहते थे। उन्हें जिस प्रकार शाश्वतवादमें खारा दिखाई देता था उसी तरह उच्छेदवादमें भी । इसलिये उन्होंने आत्माके स्वरूपको पहिले तो 'अव्याकृत' ही रखा । यदि किसीने कहलवानेका प्रयत्न भी किया तो उन्होंने इतना ही कहा कि न वह शाश्वत है और न उच्छिन्न । दोन के सहारे उन्होंने आत्माको 'अशाश्वत अनुच्छिन्न' रूपसे व्यक्त किया है। बुद्ध जन्म-मरण परलोक बन्धन
और निर्वाण आदि सभी मानते थे पर इनका आधार स्थायी तत्त्व नहीं मानना चाहते थे। उन्हें जिस प्रकार शाश्वत-आत्मवादमें आत्माके निर्विकारी या अपरिणामी रहनेसे ब्रह्मचर्य दीक्षा आदि उपायोंसे आत्मसंशोधन या निर्वाण असम्भव दिखता था उसी तरह चार्वाकके उच्छेदवादमें भी ब्रह्मचर्य आदिकी निरर्थकता साफ-साफ दिखाई देती थी। इसीलिये वे अपने भिक्षुओंको इन दोनों अन्तोंसे बचनेकी सलाह देते थे। उनका कहना था कि चित्त प्रवाह प्रतिक्षण परिवर्तित होता हुआ बहता चला आ रहा है, पूर्व से उत्तर उत्पन्न होत है। पूर्व नष्ट होता है तो उसी उपादानसे उत्तर उत्पन्न हो जाता है। जो भी संस्कार पूर्व में प्राप्त थे वे उत्तरमें परिवर्तित होनेपर भी आते हैं। अतः ब्रह्मचर्य दीक्षा आदिसे यदि चित्तको अभिसंस्कृत किया जाता है तो उससे आगे उत्पन्न होनेवाला चित्त क्रमशः निरास्रव बन सकता है। इसमें ब्रह्मचर्य दीक्षा आदिकी निर्वेद वैराग्य निरोध और निर्वाण आदिके लिए सार्थकता है।
उपनिषदवादी आत्माको नित्य मानकर उसे रागादिद्वन्द्वोंसे रहित बीतराग बनाना चाहते थे तो. बद्ध उसे क्षण परिवर्तित मानकर भी बीतराग बनाना चाहते थे। दोनोंका लश्य एक था, पर विचार या दृष्टिकोण जुदे-जुदे थे। जैन परम्परामें जीवका स्वरूप इस प्रकार बताया है
"जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोडगई ॥" (१) "पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञाः ।"-तत्त्वोप० पृ० १। (२) "तेभ्यश्चैन्यम्"-तत्त्वसं० ५० पृ० ५२० में उद्धृत । (३) तैत्ति० २।१।२। (४) छान्दोग्य० ४।३।३ । (५) बृहदा० १।५।२१। (६) तैत्ति० २।३ । (७) कौषीतकी ३।२। (८) ऐतरेय ३।२। (९) तैत्ति० २।४। (१०) तैत्ति० २।५। (११) तैत्ति० २६। (१२) द्रव्यसं० गा०२।
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