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प्रस्तावना
असंकरभावसे अनन्त कालतक परिवर्तित होकर चली जा रहीं हैं वही पर्यायोंसे कथञ्चित्तादात्म्यको प्राप्त स्वरूपास्तित्व ध्रौव्य या द्रव्य कहलाता है । पंक्तिके अन्तर्गत कोई भी पुरुष उस पंक्तिसे पृथक् होकर दूसरी पंक्तिमें शामिल हो सकता है पर कोई भी पर्याय अपने द्रव्यसे चाहनेपर भी पृथक् नहीं हो सकती और न द्रव्यान्तरमें विलीन ही हो सकती है। उसकी कार्यकारणभावके अनुसार जैसी क्रमिक स्थिति है उससे वह इधर-उधर नहीं जा सकती। यही तद्रव्यत्वका नियामक स्वरूप ध्रौव्य या द्रव्य पदसे लक्षित होता है । बौद्धाभिमत सन्तानका खोखलापन तो तब समझमें आता है जब वे निर्वाणमें चित्तसन्ततिका समूलीच्छेद मान लेते हैं। प्रदीपनिर्वाणकी तरह चित्तनिर्वाण यदि माना जाता है तो चित्त एक अनादिकालीन उस धाराके समान रहा जो अन्तमें कहीं जाकर विलीन हो जाती है, उसका अपना मौलिकत्व सार्वकालिक न होकर अस्थायी ही सिद्ध होता है। किन्तु इस तरह किसी स्वतन्त्र अर्थका सर्वथा उच्छेद स्वीकार करना युक्ति और अनुभवके विरुद्ध तो है ही पदार्थव्यवस्थाके प्रारम्भिक नियमके प्रतिकूल भी है । अतः जैनाभिमत ध्रौव्य पंक्ति और सेनाकी तरह बुद्धिकल्पित सांकेतिक या व्यावहारिक न होकर तदद्रव्यत्व रूप परमार्थ सत है। इस समस्त द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक हैं, कोई भी इसका अपवाद नहीं है। ध्रौव्यको द्रव्य और उत्पाद और व्ययको पर्याय कहते हैं अतः उत्पादव्यय प्रौव्यात्मकका अर्थ होता है द्रव्य-पर्यायात्मक तत्त्व । अकलङ्कदेवने प्रमेयके निरूपणमें द्रव्य और पर्याय विशेषणके साथ सामान्य और विशेष शब्दका भी प्रयोग किया है। अर्थात् द्रव्यपर्यायात्मक और सामान्यविशेषात्मक तत्त्व प्रमाणका गोचर होता है । सामान्यविशेषात्मक अर्थ
जैन दृष्टि से पदार्थ अनन्तधर्मात्मक है। उसमें कुछ धर्म सामान्यात्मक हैं और कुछ विशेषात्मक | प्रत्येक पदार्थमें दो प्रकारके अस्तित्व हैं-एक स्वरूपास्तित्व और दूसरा सादृश्यास्तित्व । एक द्रव्यको सजातीय या विजातीय किसी भी द्रव्यसे असङ्कीर्ण रखनेवाला स्वरूपास्तित्व है। इसके कारण एक द्रव्यकी पर्यायें दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यसे असंकीर्ण रहकर पृथक् अस्तित्व रखती हैं। यह स्वरूपास्तित्व जहाँ विवक्षित द्रव्यकी इतरद्रव्योंसे व्यावृत्ति करता है वहाँ वह अपनी कालक्रमसे होनेवाली पर्यायोंमें अनुगत भी रहता है । सारांश यह कि स्वरूपास्तित्वसे अपनी पर्यायोंमें तो अनुगत प्रत्यय होता है तथा इतरद्रव्यों और उनकी पर्यायों में व्यावृत्तप्रत्यय । इस स्वरूपास्तित्वको अवंता सामान्य कहते हैं। इसे ही द्रव्य कहते हैं, क्यों अपनी क्रमिक पर्यायोंमें द्रवित होता है अर्थात् क्रमशः प्राप्त होता है।
दूसरा सादृश्यास्तित्व है जो विभिन्नसत्ताक द्रव्योंमें सादृश्यमूलक अनुगत व्यवहार कराता है। जैसे कि स्वतन्त्र पृथक् सत्ता रखनेवाली अनेक गायोंमें 'गौ गौ' यह अनुगत व्यवहार करानेवाला गोत्व । इसे तिर्यक सामान्य कहते है । यह सादृश्यरूप है और प्रत्येक व्यक्तिमें परिसमाप्त है। काली गायकी नीली गायसे जो सास्नादिमत्त्व आदि रूपसे समानता है वह दोनोंमें परिसमाप्त है अर्थात् कालीगायका सादृश्य नीली गायमें रहता है और नीली गायका सादृश्य काली गायमें । दोनों या अनेक गायों में मोतियों में सूतकी तरह पिरोया हुआ कोई एकगोत्व नहीं है। संक्षेपमें सार यह है कि-एक द्रव्यकी दो पर्यायोंमें अनुगत व्यवहार करानेवाला स्वरूपास्तित्व होता है। जिसे ऊवंतासामान्य द्रव्य या ध्रौव्य कहते हैं । विभिन्न अनेक द्रव्योंमें अनुगत व्यवहार करानेवाला सादृश्यास्तित्व होता है । इसे तिर्यक् सामान्य कहते हैं ।
इसी तरह विशेष भी दो प्रकार के हैं-एक पर्याय और दूसरा व्यतिरेक । एक द्रव्यकी दो पर्यायोंमें विलक्षण या व्यावृत्त प्रत्यय पर्यायनामक विशेषसे होता है तथा विभिन्न दो द्रव्योंमें व्यावृत्तप्रत्यय व्यतिरेक विशेषसे होता है। तात्पर्य यह कि एक द्रव्यकी पर्यायोंमें व्यावृत्तप्रत्यय 'पर्याय' विशेषसे और अनुगत प्रत्यय 'ऊर्वता' सामान्यसे होता है जब कि विभिन्न द्रव्योंमें अनुगत प्रत्यय 'तिर्यकसामान्यसे' और व्यावृत्त प्रत्यय 'व्यतिरेक' विशेषसे होता है । इस तरह प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मकके साथ-ही-साथ द्रव्यपर्यायात्मक भी होता है। 'द्रव्य' कहनेसे ऊर्ध्वता सामान्य और 'पर्याय' कहनेसे 'पर्याय' विशेष के गृहीत हो जानेसे
(१) सिद्धिवि० वि० ३।२३ । "द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषात्मार्थगोचरम्"-न्यायवि० १३ ।
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