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. विषयपरिचय : प्रमेयमीमांसा
१३३ ध्रौव्य और सन्तान-यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जैन जिस तरह प्रतिक्षण पर्यायोंका उत्पाद और व्यय मानते हैं बौद्ध भी उसी तरह पदार्थोंको क्षणपरिवर्तनशील कहकर क्षणिक मानते हैं । जिस प्रकार जैन ध्रौव्य मानते हैं उसी प्रकार बौद्ध सन्तान मानते हैं, तब दोनोंकी पदार्थव्यवस्थामें क्या मौलिक अन्तर है ? यह सही है कि जैनका ध्रौव्य द्रत्यका कोई ऐसा अपरिवर्तिष्णु अंश नहीं है जो पर्यायोंके बदलनेपर भी बदलता न हो । यदि द्रव्य ऐसे दो अंशोंका समुदाय माना जाय जिनमें एक अंश परिवर्तिष्णु हो और एक अंश अपरिवर्तनशील, तो ऐसी वस्तुमें नित्यपक्षभावी और अनित्यपक्षभावी दोनों ही दोष आयेंगे। द्रव्यका अपनी पर्यायोंसे कथञ्चित्तादात्म्य मानने पर तो पर्यायों के परिवर्तित होनेपर कोई ऐसा अपरिवर्तित अंश द्रव्यमें बच ही नहीं सकता, अन्यथा उस अपरिवर्तनशील अंशसे तादात्म्य रखनेके कारण शेष अंश भी अपरिवर्तनशील ही हो जायँगे और इस तरह द्रव्य कटस्थनित्य हो जायगा । अतः या तो वस्तु सर्वथा परिवर्तनशील मानी जाय यानी चेतन वस्तु भी अचेतन या अचेतन भी चेतन रूपसे परिणमन करनेवाली या फिर सदा कूटस्थनित्य सर्वदा अपरिवर्तनशील । पर ये दोनों मत वस्तुस्थितिके विपरीत हैं । सर्वथा नित्य वस्तुमें कोई अर्थक्रिया न होनेसे समस्त लोकव्यवहार शिक्षा-दीक्षा और संस्कार आदिके प्रयत्न निष्फल हो जायगें क्योंकि उनका प्रभाव द्रव्यमें तो आ ही नहीं सकेगा । और यदि सर्वथा परिशर्तनशील वस्तु मानी जाय तो पूर्वका उत्तरके साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध न होनेसे उच्छेदवादका प्रसङ्ग आयगा । इसमें भी करेगा कोई अन्य तथा भोगेगा कोई अन्य । इस तरह कृतनाश और अकृताभ्यागम दोष आते हैं। इन दोनों एकान्तोंसे बचनेका जो मार्ग है उसे ही हम ध्रौव्य या द्रव्य कहते हैं। जो न बिलकुल अपरिवर्तनशील है
और न इतना विलक्षण परिवर्तन करनेवाला ही जिससे एक अचेतन या चेतन अपनी तद्रव्यत्वकी सीमाको लाँघकर दूसरा चेतन या अचेतन बन जाय । सीधे शब्दों में उसकी यही परिभाषा हो सकती है कि-किसी विवक्षित एक द्रव्यके प्रतिक्षण उत्पाद और व्यय करनेपर भी जिसके कारण उसका दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यरूपसे परिणमन नहीं होता उस स्वरूपास्तित्वका ही नाम द्रव्य ध्रौव्य या गुण है । बौद्ध के द्वारा सन्तान भी इसी प्रयोजनसे माना गया है कि नियत पूर्वक्षण नियत उत्तरक्षणके साथ ही कार्यकारणभाव रखे क्षणान्तरसे नहीं। तात्पर्य यह कि-इस सन्तानके कारण ही एक चेतनक्षण अपनी धाराके ही उत्तर चेतनक्षणका कारण होता है विजातीय अचेतनक्षण और सजातीय चेतनान्तरक्षणका नहीं । वे स्वयं कहते हैं
"यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना ।
फलं तत्रैव सन्धत्ते कार्पासे रक्तता यथा ॥" अर्थात् जिस सन्तानमें कर्मवासना है फल भी उसी सन्तानमें होता है, जैसे जिस कपासके बीजको लाखके रंगसे सींचा जाता है उसीसे उत्पन्न कपासमें लालिमा आती है।।
इस तरह तात्त्विक दृष्टि से सन्तान और द्रव्यके प्रयोजन उपयोग या कार्यमें कोई अनन्तर नहीं है । अन्तर है उसके स्वरूपमें ।
बौद्ध जिस 'सन्तान' से प्रतिनियत कार्यकारणभाव बैठानेका गुरुतर कार्य कराते हैं उसी सन्तानको पंक्ति और सेनाकी तरह 'मृषा' भी कहते हैं । जैसे दस मनुष्योंकी एक लाइनमें तथा सैनिक घोड़े आदिके समुदायमें पंक्ति और सेना नामका कोई एक अनुस्यूत पदार्थ नहीं है फिर भी उनमें पंक्ति और सेना व्यवहार हो जाता है। उसी तरह पूर्व और उत्तरक्षणमें कार्यकारणभावकी नियामक 'सन्तान' भी मृषा याने असत्य है, केवल व्यवहारके लिये कल्पित है । किन्तु ध्रौव्य या द्रव्यकी स्थिति इस प्रकारकी सन्तानसे सर्वथा भिन्न है। वह क्षणकी तरह सत्य है । जिस प्रकार 'पंक्ति' की सत्ता व्यावहारिक या सांकेतिक है उस प्रकार द्रव्य या ध्रौव्यकी सत्ता मात्र व्यावहारिक या सकितिक नहीं है किन्तु वह. परमार्थसत् है । 'तब वह है क्या?' इस प्रश्नका स्पष्ट उत्तर यह है कि जिस स्वरूपास्तित्वके कारण क्रमिक पर्यायें निश्चित तद्व्यकी धारामें
(१) तत्त्वसं० पं० पृ० १८२ में उद्धृत प्राचीन श्लोक । (२) “सन्तानः समुदायश्च पङ्क्तिसेनादिवन्मृषा ।"-बोधिच० पृ० ३३४ ।
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