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________________ १३२ - प्रस्तावना २ प्रमेयमीमांसा जैन दर्शन वास्तवबहुत्ववादी है । वह अनन्त आत्माएँ,अनन्त पुद्गल परमाणु, एक धर्म, एक अधर्म, एक आकाश और असंख्य कालाणु द्रव्य मानता है। यह विश्व जिसे वह 'लोक' कहता है इन्हीं द्रव्योंका समुदाय है । ये छह द्रव्य जहाँ पाये जाँय वह लोक है । वह अनादि अनन्त है किसीने उसे बनाया नहीं है, वह अकृत्रिम है । जैनी द्रव्य-व्यवस्थाका मूल सिद्धान्त यह है "भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुणपज्जएसु भावो उप्पायवयं पकुव्वंति ॥" -पंचा० गा० १५ । अर्थात् किसी भाव यानी सत्का विनाश नहीं होता और अभाव अर्थात् असत्का उत्पाद नहीं होता । सभी पदार्थ अपने गुण और पर्यायोंमें उपजते और विनशते रहते हैं। लोकमें जितने सत् है वे त्रैकालिक सत् हैं। उनकी संख्या में कभी भी हेर-फेर नहीं होता। न कोई नया सत् कभी उत्पन्न हुआ था न होता है और न होगा। इसी तरह किसी विद्यमान सत्का न कभी नाश हुआ था होता है या होगा । समस्त सत् गिने हुए हैं। प्रत्येक सत् अपनेमें परिपूर्ण स्वतन्त्र और मौलिक है। _ 'सत्'का लक्षण है उत्पाद व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होना । प्रत्येक सत् प्रतिक्षण अपनी वर्तमान पर्यायको छोड़कर नवीन पर्यायको धारण करता हुआ वर्तमानको भूत तथा भविष्यत्को वर्तमान बनाता हुआ आगे चला जा रहा है । चेतन हो या अचेतन प्रत्येक सत् इस परिणामचक्रपर चढ़ा हुआ है । यह उसका निज स्वभाव है कि वह प्रतिसमय पूर्वको छोड़कर अपूर्वको ग्रहण करे। यह पर्यायपरम्परा अनादि कालसे चल रही है। कभी भी यह न रुकी थी और न रुकेगी। इस पर्यायधाराका अपनी धारामें अनन्त कालतक बहते जाना, न तो कभी रुकना और न सजातीय या विजातीय किसी द्रव्यकी धारामें विलीन होना या मिलना यही उसका ध्रौव्य है । अनन्त प्रयत्न करनेपर भी विश्वके रंगमंचसे किसी एक परमाणुका समूल विनाश नहीं किया जा सकता और न किसी एक द्रव्यका अस्तित्व दूसरेमें विलीन ही किया जा सकता है । यह जो प्रत्येक द्रव्यकी 'तद्रव्यता' है वही ध्रौव्य है। जिसके कारण प्रतिक्षण क्रमशः अनन्त परिणमन करनेपर भी उस द्रव्यका एक भी गुण धर्म या प्रदेश छीजेगा नहीं, कम नहीं होगा और न उसमें ऐसा कोई गुण धर्म या प्रदेश नया बढ़ेगा ही जिसकी शक्ति उसमें न हो । प्रत्येक द्रव्य अपनी उपादानभूत शक्तियों के अनुसार प्राप्त सामग्रीके निमित्तसे अविराम गतिसे परिणमन करता रहता है। यह चक्र अनन्त कालतक विवध रूपोंमें चालू है । यह एक स्थूल नियम है कि-प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनमें यानी अपनी अगली पर्यायमें उपादान होता है, वह स्वयं अतीतका उपादेय बन कर वर्तमान में आता है और भविष्यत्के लिये उपादान बन जाता है। जिस प्रकार आधुनिक भौतिकवादियोंने पदार्थको सतत गतिशील माना है और उसमें दो विरोधी धर्मोंका समागम मानकर उसे अविराम गतिमय कहा है ठीक वही बात जैनदर्शनके उत्पादव्ययध्रौव्यसे ध्वनित होती है। पदार्थमें उत्पाद और व्यय इन दो विरोधी शक्तियोंका समागम है, जिसके कारण पदार्थ निरन्तर उत्पाद और व्ययके चक्रपर घूम रहा है । उत्पाद शक्ति जैसे ही नूतन पर्यायको उत्पन्न करती है तो व्यय शक्ति उसी समय पूर्वका नाश कर देती है। वैसे पूर्वके विनाश और उत्तरके उत्पादमें क्षणभेद नहीं है, दोनोंका कारण एक ही है और वह है उत्पादविनाशस्वभाव | इस अनिवार्य परिवर्तनके बावजूद भी कभी द्रव्यका अत्यन्त विनाश नहीं होता । जो द्रव्यधारा अनादि कालसे बहती चली आई है वह अनन्त कालतक बराबर बहती जायगी कहीं और कभी उसका विराम नहीं होगा । इसी तरह वह धारा कभी भी दूसरी द्रव्यधारामें विलीन नहीं होगी। किसी एक भी धाराका अस्तित्व समाप्त नहीं होगा इसी असांकर्य और अनन्त अविच्छिन्नत्वका नियामक ध्रौव्य होता है। (१) तुलना-"नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सतः।"-गीता २११६ । (२) "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्"-त. सू० ५।३० । सिद्धिवि० ३।१९। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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