SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषयपरिचय: आगम-प्रमाणमीमांसा १२९ भले ही हो जाय पर उसके सदृश अन्य शब्दों में वाचकव्यवहारका होना अनुभवसिद्ध है । 'यह वही शब्द है जिसमें मैंने संकेत ग्रहण किया था' इस प्रकारका एकत्व प्रत्यभिज्ञान भ्रान्तिके कारण होता है। क्योंकि जब हम उस सरीखे दूसरे शब्दको सुनते हैं, तो दीपशिखाकी तरह भ्रमवश एकत्वभान हो जाता है । आजका विज्ञान शब्दतरंगों को उसी तरह क्षणिक मानता है जिस तरह जैन बौद्धादि दर्शन । अतः अतीन्द्रिय पदार्थोंमें वेदकी अन्तिम प्रमाणता माननेके लिये यह आवश्यक है कि उसका आद्य प्रतिपादक स्वयं अतीन्द्रियदर्शी हो । अतीन्द्रिय दर्शनकी असम्भवता कहकर अन्धपरम्परा चलानेसे प्रमाणताका निर्णय नहीं हो सकता । ज्ञानस्वभाववाली आत्माका सम्पूर्ण आवरणोंके हट जानेपर पूर्ण ज्ञानी बन जाना असंभव बात नहीं है । शब्द वक्ता के भावोंको ढोनेवाला एक माध्यम है जिसकी प्रमाणता और अप्रमाणता अपनी न होकर वक्ता के गुण और दोषोंपर आश्रित है। यानी गुणवान् वक्ता के द्वारा कहा गया शब्द प्रमाण होता है और दोषवाले वक्ता द्वारा प्रतिपादित शब्द अप्रमाण । इसीलिये कोई शब्दको धन्यवाद या गाली नहीं देता किन्तु देता है उसके बोलनेवाले वक्ताको । वक्ताका अभाव मानकर 'दोष निराश्रय नहीं रहेंगे' इस युक्ति से वेदको निर्दोष कहना तो ऐसा ही है जैसे मेघ गर्जन और बिजलीकी कड़कड़ाहटको निर्दोष बताना । वह इस विधि निर्दोष बन भी जाय पर मेघ गर्जन आदिकी तरह वह निरर्थक ही सिद्ध होगा, विधि और प्रतिषेध आदि प्रयोजनोंका साधन नहीं बन सकेगा । व्याकरणादिकके अभ्याससे लौकिक शब्दोंकी तरह वैदिक पदोंके अर्थकी समस्याको हल करना इसलिए असंगत है कि जब शब्दोंके अनेक अर्थ होते हैं तब अनिष्ट अर्थका परिहार करके इष्ट अर्थका नियमन करना कैसे सम्भव होगा ? प्रकरण आदि भी अनेक हो सकते हैं, अतः धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों के साक्षात् कर्त्ता के बिना धार्मिक नियम उपनियमोंमें वेदकी निर्बाधता सिद्ध नहीं हो सकती और जब एक बार अतीन्द्रियदर्शीको स्वीकार कर लिया तत्र वेद को अपौरुषेय मानना निरर्थक ही है । कोई भी पद और वाक्य या श्लोक आदि की छन्दरचना पुरुषकी इच्छा और बुद्धिके बिना सम्भव नहीं है । ध्वनि निकल सकती है पर भाषा मानवकी अपनी देन है, उसमें उसके प्रयत्न विवक्षा और ज्ञान सभी कारण होते हैं। शब्दकी अर्थवाचकता बौद्ध शब्दका वाच्य अर्थको नहीं मानते। उनका कहना है कि शब्द अर्थके प्रतिपादक नहीं हो सकते; क्योंकि जो शब्द अर्थकी मौजूदगी में उनका कथन करते हैं वे ही अतीत अनागत रूपसे अविद्यमान पदार्थोंमें भी प्रयुक्त होते हैं । अतः उनका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं अन्यथा कोई भी शब्द निरर्थक नहीं हो सकेगा । स्वलक्षण अनिर्देश्य है । अर्थ में शब्द नहीं है और न अर्थ शब्दात्मक ही है जिससे कि अर्थके प्रतिभासित होनेपर शब्दका बोध या शब्द के प्रतिभासित होनेपर अर्थका बोध अवश्य हो । शब्द वासना और संकेतकी इच्छा के अनुसार अन्यथा भी संकेतित किये जाते हैं । इसलिए उनका अर्थसे कोई अविनाभाव नहीं है । वे केवल बुद्धिप्रतिबिम्बित अन्यापोहके वाचक होते हैं । यदि शब्दोंका अर्थसे वास्तविक सम्बन्ध होता तो एक 'वस्तुमें परस्परविरोधी विभिन्न शब्दोंका और उन शब्दों के आधारसे रचे हुए विभिन्न दर्शनोंकी सृष्टि न हुई होती । अनि ठंडी है या गरम इसका निर्णय जैसे अग्नि स्वयं अपने स्वरूपसे करा देती है । उसी तरह कौन शब्द सत्य है कौन असत्य इसका निर्णय भी पदार्थको अपने स्वरूपसे ही करा देना चाहिये था, पर विवाद आज तक मौजूद है । अतः गौ आदि शब्दोंको सुनकर हमें एक सामान्यका बोध होता है । (१) देखो - सिद्धिवि० पृ० ५१२-१९ । "अतीताजातयोर्वापि न च स्यादनृतार्थता । वाचः कस्याश्चिदित्येषा बौद्धार्थविषया मता ॥ " - प्रमाणवा० ३।२०७ । (३) " परमार्थैकतानत्वे शब्दानामनिबन्धना । न स्यात्प्रवृत्तिरर्थेषु समयान्तरभेदिषु ॥ " - प्रमाणवा० ३।२०६ । १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy