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प्रस्तावना . यह सामान्य वास्तविक नहीं है, विभिन्न गौ व्यक्तियोंमें पाई जानेवाली अगोव्यावृत्ति या अगोपोहके द्वारा गौ गौ गौ इस सामान्य व्यवहारकी सृष्टि होती है। यह सामान्य उन्हीं व्यक्तियोंको प्रतिभासित होता है जिनने अपनी बुद्धिमें इस प्रकारका अभेदभान कर लिया है। अनेक गायोंमें अनुस्यूत एक नित्य और निरंश गोत्व असत् है, क्योंकि विभिन्न देशवर्ती व्यक्तियों में एक साथ एक गोत्वका पाया जाना अनुभवविरुद्ध तो है ही साथ साथ व्यक्तिके अंतरालमें उसकी उपलब्धि न होनेसे बाधित भी है । जिस प्रकार छात्रमण्डल छात्रव्यक्तियोंको छोड़कर अपना कोई पृथक अस्तित्व नहीं रखता, वह एक प्रकारकी भावना है जो सम्बन्धित व्यक्तियोंकी बुद्धितक ही सीमित है, उसी तरह गोत्व मनुष्यत्वादि सामान्य भी काल्पनिक हैं, बाह्यसत् वस्तु नहीं । सभी गायें गौके कारणोंसे उत्पन्न हुई हैं और गौके कार्योंको करती हैं, उनमें अगोकारणव्यावृत्ति और अगोकार्यव्यावृत्ति अर्थात् असत्कार्यकारणव्यावृत्तिसे सामान्य व्यवहार होने लगता है। परमार्थसत् गो वस्तु क्षणिक है, अतः उसमें संकेतग्रहण नहीं किया जा सकता और जिस गोव्यक्तिमें संकेत ग्रहण किया जाता है वह गौ व्यक्ति जब द्वितीय क्षणमें नष्ट हो जाती है तब वह संकेत व्यर्थ हो जाता है। क्योंकि अगले क्षणमें जिन गौव्यक्तियों और शब्दोंसे व्यवहार करना है उन व्यक्तियोमें तो संकेत हो ग्रहण नहीं किया है, वे तो असंकेतित ही हैं। अतः शब्द वक्ताकी विवक्षाको सूचित करता हुआ बुद्धि कल्पित अन्यव्यावृत्ति या अन्यापोहका ही वाचक होता है अर्थका नहीं।
इन्द्रियग्राह्य पदार्थ भिन्न होता है और शब्दगोचर अर्थ भिन्न । शब्दसे अन्धा भी अर्थबोध कर सकता है पर वह अर्थको प्रत्यक्ष नहीं जान सकता। दाह शब्दके द्वारा जिस दाह अर्थका बोध होता है और अग्निको छूकर जिस दाहकी प्रतीति होती है, वे दोनों दाह जुदे-जुदे हैं इसे समझानेकी आवश्यकता नहीं है । अतः शब्द केवल कल्पितसामान्यका वाचक है ।
यदि शब्द अर्थका वाचक होता तो शब्दबुद्धि का प्रतिभास इन्द्रियबुद्धिकी तरह विशद होना चाहिए था । अर्थव्यक्तियाँ अनन्त और क्षणिक हैं, इसलिए जब उनका ग्रहण ही सम्भव नहीं है तब पहले तो संकेत' ही नहीं हो सकता, कदाचित् गृहीत हो भी जाय तो व्यवहारकाल तक उसकी अनुवृत्ति नहीं होती, अतः उससे अर्थबोध होना असम्भव है। कोई भी प्रत्यक्ष ऐसा नहीं है, जो शब्द और अर्थ दोनोंको विषय करता हो । अतः संकेत होना ही कठिन है। स्मरण निर्विषय और गृहीतग्राही होनेसे प्रमाण ही नहीं है।
सामान्य विशेषात्मक अर्थ वाच्य है-किन्तु बौद्धकी यह मान्यता उचित नहीं है। पदार्थमें कुछ धर्म सदृश होते हैं और कुछ विसदृश । इन सदृश धर्मोको ही सामान्य कहते हैं। यह अनेकानुगत न होकर व्यक्तिनिष्ठ है । यदि सादृश्यको वस्तुगत धर्म न माना जाय तो अगोनिवृत्ति 'अमुक गौ व्यक्तियोंमें ही पायी जाती है, अश्वादि व्यक्तियों में नहीं' यह नियम कैसे किया जा सकेगा? जिस तरह भाव-स्वास्तित्व वस्तुका धर्म है, उसी तरह अभाव परनास्तित्व भी वस्तुका ही धर्म है । उसे तुच्छ या निःस्वभाव कहकर उड़ाया नहीं जा सकता । सादृश्यका बोध और व्यवहार हम चाहे अगोनिवृत्ति आदि निषेधमुखसे करें या सास्नादिमत्त्व आदि समानधर्मरूप गोत्व आदिको देखकर करें पर इससे उसके परमार्थसत् वस्तुत्वमें कोई बाधा नहीं आती । जिस तरह प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय सामान्यविशेषात्मक पदार्थ होता है, उसी तरह शब्दसंकेत भी सामान्यविशेषात्मक पदार्थमें ही किया जाता है। केवल सामान्यमें यदि संकेत ग्रहण किया जाय तो उससे विशेष व्यक्तियोंमें प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। अनन्त विशेष व्यक्तियाँ तत्-तत् रूपमें हमलोगोंके ज्ञानका जब विषय ही नहीं बन सकतीं तब उनमें संकेतग्रहणकी बात तो अत्यन्त असम्भव है । सदृशधर्मोंकी अपेक्षा शब्दका अर्थमें संकेत ग्रहण किया जाता है। जिस शब्दव्यक्ति और अर्थव्यक्तिमें संकेत ग्रहण किया जाता है भले ही वे व्यवहारकाल तक न जायँ पर तत्सदृश दूसरे शब्दसे तत्सदृश दूसरे अर्थकी प्रतीति होनेमें क्या बाधा है ? एक घटशब्दका एक घट अर्थमें संकेत ग्रहण करनेपर भी तत्सदृश यावत् घट
(१) "तत्र स्वलक्षणं तावन्न शब्दैः प्रतिपाद्यते ।
सङ्केतव्यवहाराप्तकालव्याप्तिविरोधतः॥"-तत्त्वसं०पृ० २०७ । (२) देखो-सिद्धिवि० टी० पृ० ३२०-३०, ४४९-५२, ६३३-४६ । न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ५५७ ।
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