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प्रस्तावना
माणिक्यनन्दी आचार्यने विधिसाधक ६ उपलब्धियाँ, प्रतिषेध-साधक ६ उपलब्धियाँ, प्रतिषेधसाधक ७ अनुपलब्धियाँ ओर विधिसाधक ३ अनुपलब्धियाँ इस तरह हेतुके २२ भेद किए हैं।
वादिदेवसूरिने विधिसाधक तीन अनुपलब्धियोंके स्थानमें पाँच अनुपलब्धियाँ तथा निषेधसाधक ६ अनुपलब्धियोंकी जगह ७ अनुपलब्धियाँ बताई हैं।
आ० विद्यानन्दने अभूत भूतादि तीन प्रकारोंमें 'अभूत अभूतका' यह एक प्रकार और बढ़ाकर सभी विधि और निषेधसाधक उपलब्धि और अनपलब्धियोंका इन्हींमें अन्तर्भाव किया है।
बौद्ध दृश्यानुपलब्धिसे ही अभावकी सिद्धि मानते हैं। दृश्यसे उनका तात्पर्य ऐसी वस्तुसे है जो वस्तु सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती न हो तथा जो वस्तु प्रत्यक्षका विषय हो सकती हो। ऐसी वस्तु उपलब्धिके समस्त कारण मिलने पर भी यदि उपलब्ध न हो तो समझना चाहिए कि उसका अभाव है। सूक्ष्म आदि विप्रकृष्ट पदार्थों में हमलोगों के प्रत्यक्ष आदिकी निवृत्ति होनेपर भी उनका अभाव नहीं होता । प्रमाणकी प्रवृत्तिसे प्रमेयका सद्भाव तो साधा जा सकता है पर प्रमाणकी निवृत्तिसे प्रमेयका अभाव नहीं किया जा सकता । अतः विप्रकृष्ट विषयोंकी अनुपलब्धि संशयहेतु होनेसे अभावसाधक नहीं हो सकती। वस्तुके दृश्यत्वका सीधा अर्थ यह है कि-उसके उपलम्भ करनेवाले समस्त कारणोंकी समग्रता हो और वस्तुमें एक विशेष स्वभाव हो। घट और भूतल एकज्ञानके विषय थे। जितने और जिन कारणोंसे भूतल दिखाई देता था उतने ही उन्हीं कारणोंसे ही घड़ा भी। अतः जब अकेला भूतल दिखाई दे रहा है तब यह तो मानना ही होगा कि वहाँ भूतलके उपलम्भके सभी कारण उपस्थित हैं। यदि घड़ा वहाँ होता तो वह भी भूतलकी तरह दिखाई देता। तात्पर्य यह कि एकज्ञानसंसर्गी पदार्थान्तरकी उपलब्धि इस बातका पक्का प्रमाण है कि वहाँ उपलम्भकी समस्त सामग्री मौजूद है। घटमें उसी सामग्रीके द्वारा प्रत्यक्ष होनेका स्वभाव भी है। क्योंकि यदि वहाँ उसी समय घड़ा लाया जाय तो वह उस सामग्रीसे अवश्य दिख जायगा। पिशाच आदि या परमाणु आदि पदार्थों में यह स्वभावविशेष नहीं है। अतः सामग्रीकी पूर्णता रहनेपर भी उनका प्रत्यक्ष नहीं होता । पिशाचादिमें सामग्रीकी पूर्णताका प्रमाण भी नहीं दिया जा सकता; क्योंकि उनका एकज्ञानसंसर्गी कोई पदार्थ उपलब्ध नहीं होता। इस तरह बौद्ध दृश्यानुपपलधिको अभावसाधक और अदृश्यानुपलब्धिको संशयहेतु मानते हैं।
__ अकलङ्कदेवने इसकी समीक्षा करते हुए लिखा है कि दृश्यत्वका अर्थ केवल प्रत्यक्षविषयत्व ही नहीं है किन्तु उसका व्यापक अर्थ करना चाहिये प्रमाणविषयत्व | जो वस्तु जिस प्रमाणका विषय होती है वह वस्तु यदि उसी प्रमाणसे उपलब्ध न हो तो ही उसका अभाव मानना चाहिए । उपलब्धि या उपलम्भका अर्थ प्रमाणसामान्य ही है। मृत शरीरमें स्वभावसे अतीन्द्रिय भी चैतन्यका अभाव हमलोग श्वासोच्छ्रास उष्णता और वचनव्यापार आदिका अभाव देखकर ही करते हैं। यहाँ चैतन्यमें प्रत्यक्षविषयत्वरूप दृश्यत्व तो है नहीं; क्योंकि परचैतन्य कभी भी हमारे प्रत्यक्षका विषय नहीं होता। जिन वचनव्यापार उष्णता आकारविशेष या श्वासोच्छ्वास आदिको देखकर हम परशरीरमें उसका सद्भाव साधते हैं, उन्हींका अभाव देखकर चैतन्यका अभाव करना न्यायप्राप्त कहा जाना चाहिए।
. यदि अदृश्यानुपलब्धि एकान्ततः संशयहेतु मानी जाय तो मृत शरीरमें चैतन्यकी निवृत्तिका सन्देह सदा बना रहेगा । ऐसी दशामें दाहसंस्कार करनेवालोंको हिंसाका पातक लगना चाहिए । बहुतसे अप्रत्यक्ष रोगादिका भी कार्याभाव देखकर अभाव मान लेना सदाका व्यवहार है। यदि अदृश्यानुपलम्भसे संशय ही हो तो 'मैं पिशाच नहीं हूँ' यह निश्चय स्वयंको ही नहीं हो पायेगा। यदि वर्तमान पदार्थमें किसी भी
(1) परीक्षामुख ३६०-८४ । (२)प्र० नयतत्त्वा० ३।७४-1 (३) प्रमाणप० पृ०७२-७४ । (४) न्यायबि० २२।२८-३०, ४६। (५) वही १४८-४९
(६) “अदृश्यानुपलम्भावभावासिद्धिरित्ययुक्तं परचैतन्यनिवृत्तावारकापत्तेः, संस्कर्तृणां पातकित्वप्रसङ्गात्, बहुलमप्रत्यक्षस्यापि रोगादेर्विनिवृत्तिनिर्णयात्।'-अष्टश०.अष्टसहपृ०५२ । सिद्धिवि.६३५।
(७) सिद्धिवि० ६३६ । लघी० श्लो. १५।
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