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विषयपरिचय : अनुमान-प्रमाणमीमांसा
प्रमाणसे अदृश्य पदार्थोंका अभाव स्वीकार न किया जाय तो दहीमें भी अदृश्य बुद्धशरीरकै सद्भावकी शंका बनी रह सकती है। ऐसी दशामें बौद्धभिक्षुकी दहीके खाने में निःशंक प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए | किन्तु बौद्धभिक्षुको भी दही खानेपर यह पक्का निश्चय होता है कि मैंने दही ही खाया है बुद्धका शरीर नहीं खाया । किन्तु आपके विचारसे उसे यह तो निश्चय हो सकता है कि 'मैंने दही खाया है काँजी नहीं खाई, क्योंकि वह दृश्य काँजीका अभाव जान सकता है पर यह निश्चय नहीं हो सकता कि-'मैंने बुद्ध शरीर नहीं खाया' क्योंकि बुद्धशरीरके अदृश्य होने के कारण उसका अभाव करना इनके लिये कठिन है, अदृश्यानुपलब्धि
वे कठिन है, अदृश्यानुपलब्धिको तो संशयहेतु माना है।
इसी तरह चित्र निरंश संवित्तिको यदि सर्वथा अदृश्य माना जाय, क्योंकि वह प्रत्यक्षका विषय तो होती ही नहीं; तो उसमें जब 'सत्त्व हेतु ही सिद्ध न हो सकेगा तब क्षणिकत्वकी सिद्धि कैसे की जायगी? अतः जिस प्रकार दर्शनाभावकै कारणोंकी असम्भवतामें दृश्यका अभाव अनुपलब्धिसे किया जाता है उसी तरह अनुमानाभावके कारणोंकी असम्भवतामें अनुमेय परचित्तादिका अमाव भी अनुपलब्धिसे किया जा सकता है, अन्यथा मृत-शरीरमें चैतन्याभावका निश्चय करना असम्भव हो जायगा और इस तरह अदृश्यकी आशंकासे समस्त व्यवहार उच्छिन्न हो जायँगे। जिस वस्तुको हम जिस प्रमाणसे जानते हैं उस प्रभाणके कारणोंकी समग्रता होनेपर भी यदि वह वस्तु उपलब्ध न हो तो उसका भी अभाव मान लेना चाहिए । हेत्वाभास
जो हेतुके लक्षणसे रहित होकर भी हेतुकी तरह प्रतिभासित होते हैं वे हेत्वाभास हैं। वस्तुतः इन्हें साधनके दोष होनेसे साधनाभास कहना चाहिए, क्योंकि निर्दष्ट साधनमें इन दोषोंकी संभावना नहीं होती। साधन और हेतुमें वाच्यवाचकका भेद है । साधनके वचनको हेतु कहते हैं, अतः उपचारसे साधनके दोषोंको हेतुका दोष मानकर हेत्वाभास संज्ञा दे दी गई है।
नैयायिक हेतुके पाँच रूप मानते हैं अतः वे क्रमशः एक एक रूपके अभावमें असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसम ये पाँच हेत्वाभास स्वीकार करते हैं ।
बौद्धने हेतुको त्रिरूप माना है । अतः उसके मतसे पक्षधर्मत्वके अभावमें असिद्ध सपक्षसत्त्वके अभावमें विरुद्ध और विपक्षव्यावृत्तिके अभावमें अनैकान्तिक ये तीन हेत्वाभास होते हैं।
कणादसूत्र (३।१११५) में असिद्ध विरुद्ध और सन्दिग्ध इन तीन हेत्वाभासोंका कथन होनेपर भी प्रशस्तपादभाष्यमें अनध्यवसित नामके चौथे हेत्वाभासको भी गिनाया है।
जैन दार्शनिकोंमें आ० "सिद्धसेनने असिद्ध विरुद्ध और अनैकान्तिक ये तीन हेत्वाभास गिनाये हैं। अकलङ्कदेवने अन्यथानुपपन्नत्वको ही जब हेतुका एकमात्र नियामक रूप माना हैं तब स्वभावतः इनके मतसे अन्यथानुपपन्नत्वके अभावमें एक ही हेत्वाभास हो सकता है। वे स्वयं लिखते हैं कि वस्तुतः एक 'असिद्ध' ही हेत्वाभास है । चूँकि अन्यथानुपपत्तिका अभाव अनेक प्रकारसे होता है, अतः विरुद्ध असिद्ध सन्दिग्ध और अकिञ्चित्करके भेदसे चार हेत्वाभास भी हो सकते हैं। एक स्थलमें तो उन्होंने विरुद्ध आदिको अकिञ्चित्करका ही विस्तार कहा है। इस तरह इनके मतसे हेत्वाभासोंकी संख्याका कोई आग्रह नहीं है फिर भी उन्होंने जिन चार हेत्वाभासोंका निर्देश किया है, उनके लक्षण इस प्रकार हैं
(१) "दध्यादौ न प्रवर्तेत बौद्धः तद्भुक्तये जनः ।..."-सिद्धिवि० स्ववृ० ६।३७। देखो पृ० ६६ । (२) सिद्धिवि० ६१३८ ।
(३) “यथैव दर्शनाभावकारणासंभवे दृश्याभावोऽनुपलब्धः सिध्यति तथैव अनुमाभावकारणासंभवे अनुमेयस्य परचित्तादेः भवत्यभावसिद्धिः; अन्यथा निश्चेतनपरशरीरप्रतिपत्तेरनुपपत्तेः ।"-सिद्धिवि. स्ववृ० ६।३५। (४) न्यायावतार श्लो० २३ ।
(५) "अन्यथासम्भवाभावभेदात् स बहुधा मतः ।
विरुद्धासिद्धसन्दिग्धैरकिञ्चित्करविस्तरैः ॥"-न्यायवि० २११९५ । (६)"अकिञ्चित्कारकानू सर्वान तान वयं संगिरामहे ।"-न्यायवि. १३००।
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