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विषय परिचय : अनुमान-प्रमाणमीमांसा
है और न तदुत्पत्ति सम्बन्ध ही, पर वे मात्र सामान्य अविनाभाव होनेसे गमक होते हैं, जैसे कि कृत्तिकोदय आदि पूर्वचर और उत्तरचर हेतु | कृत्तिकाका उदय देखकर 'भरणीका उदय हो चुका' तथा 'रोहिणीका उदय होगा' ये अनुमान बराबर होते हैं, पर न तो कृत्तिकोदयका अतीत भरण्युदय और भविष्यत् शकटोदयसे तादात्म्य सम्बन्ध है और न तदुत्पत्ति सम्बन्ध ही।
हेतुके भेद-अकलङ्कने सामान्यतया हेतुके दो भेद किये हैं-एक उपलब्धिरूप और दूसरा अनुपलब्धिरूप । दोनों ही प्रकारके हेतु विधि और प्रतिषेध दोनों प्रकारके साध्योंको सिद्ध करते हैं । इनमें उपलब्धिहेतुके स्वभाव, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये छह भेद हैं । बौद्ध इनमें स्वभाव और कार्य ये दो ही मानते हैं।
कारण हेत-वृक्षसे छायाका ज्ञान या चन्द्रसे जलमें पड़नेवाले उसके प्रतिबिम्बका ज्ञान करना कारण हेतु है । यद्यपि 'कारण अवश्य ही कार्यको उत्पन्न करे ही' यह नियम नहीं है ; क्योंकि कारणोंकी सामर्थ्य में रुकावट तथा सामग्रीके अन्तर्गत कारणोंकी विकलता भी देखी जाती है, किन्तु ऐसे कारणसे जिसकी शक्तिमें कोई प्रतिबन्ध न हो और कारणान्तरोंकी विकलता न हो, कार्यका अनुमान करने में क्या बाधा है ? अनुमाताकी अशक्तिसे अनुमानको सदोष नहीं कहा जा सकता।
बौद्ध रससे रूपका अनुमान करनेमें यह प्रक्रिया बताते हैं कि-रससे उसकी एक सामग्री अर्थात् पूर्व रूप और पूर्व रसका अनुमान किया जाता है। पूर्वरूप अपने सजातीय उत्तररूपको उत्पन्न करके ही उत्तररसकी उत्पत्तिमें सहकारी होता है । एक सामग्रीमें रूप तभी शामिल होता है जब वह अपने सजातीय उत्तररूपको उत्पन्न कर चुकता है।
किन्तु एक सामग्यन्तर्गत पूर्वरूपसे उत्तररूपका अनुमान करना कारणसे कार्यका अनुमान ही हुआ। कारणको हेतु बनानेकी यह शर्त मान्य होनी ही चाहिए कि यदि सामर्थ्यका प्रतिबन्ध न हो और कारणान्तरों की विकलता न हो तो ऐसा कारण अवश्य ही कार्यको उत्पन्न करेगा।
पूर्वचर-उत्तरचर हेतु-जिन साध्य और साधनमें निश्चित क्रमभाव तो है पर न तो परस्पर कार्यकारणभाव है और न स्वभाव-स्वभाववान् सम्बन्ध है ऐसा साधन पूर्वचर या उत्तरचर हेतु होता है। जैसे भरणी कृत्तिका और रोहिणी ये तीनों नक्षत्र क्रमशः एक-एक मुहूर्त के अन्तरालसे उदयमें आते हैं। अतः 'कृत्तिकाके उदय होनेसे भरणीका उदय हो चुका है' यह हेतु उत्तरचर हेतु है, और 'रोहिणीका उदय होगा' यहाँ वही पूर्वचर हेतु है । ये हेतु स्वभाव कार्य या कारण किसी हेतुमें अन्तर्भूत नहीं हो सकते।
सहचर हेतु-चन्द्रमाके इस भागको देखकर उस भागके अस्तित्वका अनुमान या तराजूके एक पलड़ेको उठा हुआ देखकर दूसरे पलड़ेके नीचे झुकनेका अनुमान सहचरहेतुजन्य है। इनमें परस्पर न तादात्म्य सम्बन्ध है और न तदुत्पत्ति ही; क्योंकि एक अपनी स्थितिमें दूसरेकी अपेक्षा नहीं करता तथा दोनों एक साथ होते हैं, किन्तु अविनाभाव अवश्य है।
जैन दर्शनमें इसीलिये अविनाभावका नियामक केवल सहभावनियम और क्रमभावनियमको ही माना है। यह सहभावनियम कहीं तादात्म्यमूलक भी हो सकता है तथा कहीं केवल सहभाव ही होता है । इसी तरह क्रमभाव नियम कहीं कार्यकारणभावमूलक भी हो पर कहीं वह मात्र क्रमभावमूलक ही होता है। अतः अविनाभाव ही एकमात्र हेतुका सच्चा लक्षण हो सकता है। - अनुपलब्धि विचार-बौद्ध अनुपलब्धिको केवल प्रतिशेधसाधक मानते हैं किन्तु अकलङ्कदेवने उपलब्धि और अनुपलब्धि दोनोंको ही विधिसाधक और दोनोंको ही प्रतिषेधसाधक माना है। इसीलिये प्रमाणसंग्रह (पृ० १०४-५) में सद्भावसाधक ९ उपलब्धियों और अभावसाधक ६ अनुपलब्धियोंको लिखकर निषेधसाधक ३ उपलब्धियोंके भी उदाहरण दिये गये हैं ।
(१) “नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति"-प्र० वा० स्ववृ० १॥६६ । (२) सिद्धिवि० ६॥१६॥ (२) सिद्धिवि० ६।१५।
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