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________________ प्रस्तावना होगा क्योंकि अभी कृत्तिकाका उदय है' इस पूर्वचर अनुमानमें कृत्तिकोदय हेतु रोहिणी नामक पक्षमें नहीं रहता, अतः पक्षधर्मत्व न रहनेपर भी मात्र अविनाभावके कारण यह सद्धेतु है। 'सर्व क्षणिक सत्त्वात्' बौद्धोंके इस प्रसिद्ध अनुमानमें सबको पक्ष कर लेनेके कारण सपक्षका अभाव होनेसे 'सपक्षसत्त्व नहीं है फिर भी उनके मतमें यह सद्धेतु माना ही जाता है। अतः अविनाभावको ऐसे नियमों में नहीं जकड़ना चाहिए जिससे उसका स्वरूप अव्याप्त अतिव्याप्त या असम्भव बन जाय । नैयायिक' उपर्युक्त त्रैरूप्यके साथ अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्वको भी हेतुका आवश्यक अंग मानकर अविनाभावकी परिसमाप्ति पंचरूपमें मानते हैं। किन्तु जब पक्षके लक्षणमें प्रत्यक्षाद या अबाधित विशेषण विद्यमान है तो फिर हेतुके लक्षणमें इस रूपकी आवश्यकता नहीं रह जाती। अविनाभावी हेतुमें किसी प्रकारकी बाधाकी सम्भावना भी नहीं है, क्योंकि बाधा और अविनाभावमें विरोध है। प्रमाणप्रसिद्ध अविनाभाववाले हेतुका समानबलशाली कोई प्रतिपक्षी भी संभव नहीं है, अतः असत्प्रतिपक्षत्व रूप भी निरर्थक है। __ हेतुबिन्दुटीका (पृ० २०५) में ज्ञातत्व और विवक्षितैकसंख्यत्व नामके दो अन्य रूपोंका भी पूर्वपक्षमें उल्लेख किया गया है। इनमें 'ज्ञातत्व'का पृथक् कहना इसलिये अनावश्यक है कि हेतु ज्ञात ही नहीं अविनाभावी रूपसे 'निश्चित' होकर ही साध्यका अनुमापक होता है । यह तो हेतुके लिए आवश्यक और प्राथमिक शर्त है। इसी तरह विवक्षितैकसंख्यत्वका कथन भी सत्प्रतिपक्षकी तरह अनावश्यक है क्योंकि अविनाभावी हेतुके .प्रतिपक्षी किसी द्वितीय हेतुकी सम्भावना ही नहीं है जो इस हेतुकी विवक्षित एकसंख्याका विघटन कर सके। धर्मकीर्तिके टीकाकार कर्णकगोमिने रोहिणीके उदयका अनुमान करानेवाले कृत्तिकोदय हेतुमें काल या आकाशको धर्मी बनाकर पक्षधर्मत्व घटानेका प्रयास किया है। किन्तु इस तरह परम्पराश्रित प्रयास करनेसे तो पृथिवीको धर्मी मानकर महानसगत धूम हेतु समुद्रमें भी अमि सिद्ध करनेमें पक्षधर्मत्वरहित नहीं होगा । व्यभिचारी हेतुओंमें भी काल आकाश और पृथिवी आदिकी अपेक्षा पक्षधर्मत्व घटाया जा सकेगा। अतः अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्व ही एकमात्र लक्षण हो सकता है। इसके रहनेपर अन्य रूप हों या न हों वह सद्धेतु होगा ही। इसी बातको लक्ष्यमें रखकर पात्रस्वामीने त्रिलक्षणकदर्थनमें यह प्रसिद्ध कारिका कही है "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" इसीका अनुकरण कर विद्यानन्दने प्रमाणपरीक्षा (पृ० ७२) में पंचरूपके प्रति यह कारिका कही है "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः॥" 'बौद्ध अविनाभावको तादात्म्य और तदुत्पत्ति से नियत मानते हैं। उनके मतसे हेतुके तीन भेद हैं-स्वभाव कार्य और अनुपलब्धि । इनमें स्वभावहेतु और कार्यहेतु विधिसाधक हैं तथा अनुपलब्धिहेतु प्रतिषेध साधक । स्वभावहेतुमें तादात्म्य सम्बन्ध कार्यहेतुमें तदुत्पत्ति और अनुपलब्धिहेतुमें यथासंभव दोनों सम्बन्ध अविनाभावके साधक होते हैं। अकलङ्कदेवने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि जहाँ तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्धसे हेतुमें गमकत्व देखा जाता है वहाँ अविनाभाव तो रहता ही है, भले ही वहाँ वह अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्तिप्रयुक्त कह लिया जाय, किन्तु अनेक ऐसे भी हेतु हैं जिनका अपने साध्यसे न तो तादात्म्य ही (१)न्यायवा० ११५ । (२) "बाधाविनाभावयोर्विरोधात्"-हेतुबि० पृ० ६८ । (३) प्र. वा. स्ववृ० टी० पृ० ११ । (४) न्यायबि० २।२५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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