________________
विषयपरिचय : अनुमान-प्रमाणमीमांसा
परोक्षप्रमाण
'अकलङ्कन्याय' के प्रकरणमें स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और आगमके प्रामाण्यके सम्बन्धमें कहा जा चुका है। अकलङ्कदेवको एक ही दृष्टि है कि जो भी ज्ञान अविसंवादी हों उन्हें प्रमाण मानना चाहिए। स्मृति प्रत्यभिज्ञान और तर्क अपनी उत्पत्तिमें भले ही ज्ञानान्तरोंकी अपेक्षा रखते हो पर उत्पत्तिके अनन्तर स्वविषयप्रकाशन और स्वविषय-सम्बन्धी अविसंवाद तो उनमें बराबर है ही, अतः उन्हें प्रमाणतासे वंचित नहीं किया जा सकता। समस्त जीवनव्यवहार स्मृति और प्रत्यभिज्ञानसे ही चलता है। बन्धमोक्षादिव्यवस्था और कर्तृकर्मफलभाव आदिका ग्रहण प्रत्यभिज्ञानके बिना असंभव है। स्मृति और प्रत्यभिज्ञानके बिना अविनाभाव ग्रहणकी संभावना नहीं की जा सकती। संकेतस्मरण और संकेतग्रहण भी स्मृति और प्रत्यभिज्ञानके बिना असंभव हैं, अतः अनुमानप्रमाण और आगमप्रमाणकी सामग्रीक रूपमें भी इनकी सार्थकता है। व्याप्तिस्मरणके बिना अनुमान की और संकेतस्मरणके बिना आगमप्रमाणकी उत्पत्ति ही असंभव है । स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमानमें पूर्व पूर्व उत्तर उत्तर में कारण होते हैं । स्मरण प्रत्यभिज्ञानमें, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान तर्कमें, तथा स्मरण प्रत्यभिज्ञान और तर्क अनुमानमें कारण होते हैं । जब अनुमानके बिना प्रत्यक्षकी प्रमाणताका निश्चय करना अशक्य है, दूसरेकी बुद्धि की प्रतिपत्ति तथा परलोकादिका निषेध भी जब अनुमान के बिना संभव नहीं है तब अनुमान प्रमाण तो प्रामाणिक पद्धतिमें स्वीकार करना ही पड़ता है। किसी भी वादीका लोकव्यवहार स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमानके बिना चल नहीं सकता। वे इनसे व्यवहार चलाना तो चाहते हैं, पर इनकी प्रमाणता स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं। किसी स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क या अनुमानको व्यभिचारी देखकर सभीको व्यभिचारी या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, अन्यथा किसी तैमिरिक रोगीका प्रत्यक्ष भी व्यभिचारी देखा जाता है तो प्रत्यक्षमात्रको भी व्यभिचारी मानना पड़ेगा । यह तो प्रमाताका अपराध है, जो वह उचित रीतिसे उनका प्रयोग नहीं करता या चूक जाता है, इसमें प्रमाणोंका कोई दोष नहीं है। हेतु विचार
अनुमानकी प्रमाणता स्थापित हो जानेके बाद उसके अवयवोंके विवेचन करनेका प्रसङ्ग क्रमप्राप्त है । अकलङ्कदेवने धर्मी साध्य और साधन आदिके लक्षण न्यायविनिश्चयके अनुमान प्रस्तावमें विस्तारसे किये हैं । यहाँ अनुमानकी उत्पत्तिमें सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान जिस हेतुका है और जिसकी व्याप्तिके बलसे ही अनुमानका उदय होता है उस हेतुसम्बन्धी विचार ही विशेष रूपसे प्रस्तुत किये जाते हैं।
जैनाचार्यों ने प्रारम्भसे ही साधनका एकमात्र लक्षण माना है अन्यथानुपपन्नत्व' या अविनाभाव। अन्यथा-साध्यके अभावमें अनुपपन्नत्व-नहीं होना, यही अन्यथानुपपन्नत्व है जो अविनाभावका पर्याय है। बौद्धपरम्परामें यद्यपि अविनाभावको हेतुका स्वरूप कहा है पर वे उसकी परिसमाप्ति त्रैरूप्य में मानते हैं । पक्षधर्मत्व सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति हेतुके ये तीन रूप असिद्ध विरुद्ध और व्यभिचार इन तीनों दोषोंका वारण करने के लिये माने गये हैं। त्रैरूप्यका विवरण करते हुए अचार्य धर्मकीर्तिने न्यायबिन्दु (२।५-७) में लिखा है कि-(१) लिङ्गकी अनुमेयमें सत्ता ही होनी चाहिए (२) सपक्षमें ही सत्ता और (३) विपक्षमें असत्ता ही होनी चाहिए । अकलङ्कदेवका यही ध्येय रहा है कि लक्षणमें उतने ही पद रखना चाहिए जो अत्यन्त आवश्यक हों तथा सर्वसंग्राहक हो । 'अविनाभाव' यह सामान्यलक्षण तो सही है पर इसके स्वरूपके लिये केवल 'विपक्षव्यावृत्ति' ही अनिवार्य है पक्षधर्मत्व और सपक्षसत्त्व नहीं। 'एक मुहर्त के बाद रोहिणी नक्षणका उदय
(१) पृ०६३-६४ । (२) न्यायावता० श्लो० ५। (३) वही श्लो० २२ । (४) "अविनाभावनियमात्" -प्र० वा० ३।११। (५) "हेतुस्विरूपः"-न्यायप्र० पृ० । (६) प्र. वा० ३।१४। (७) सिद्धिवि० ६।१७ । लघी० श्लो०१३-१४ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org