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________________ २१४ प्रस्तावना सखी ग्रहण आदि भविष्यत् दशाओंका उपदेश कैसे हो सकेगा? ज्योतिर्ज्ञानोपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है अतः यह मानना ही चाहिये कि उसका यथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थदर्शनके बिना नहीं हो सकता। जैसे सत्यस्वप्नदर्शन इन्द्रियादिकी सहायताके विना ही भावी राज्यलाभ आदिका यथार्थ स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विशद है, उसी तरह सर्वज्ञका ज्ञान भी भावी पदार्थों में संवादक और स्पष्ट होता है । जैसे प्रश्नविद्या या 'ईक्षणिकादि विद्या अतीन्द्रिय पदार्थोंका स्पष्ट भान करा देती है। उसी तरह अतीन्द्रिय ज्ञान स्पष्टभासक होता है। जिस प्रकार परिमाण अणुपरिमाणसे बढ़ता-बढ़ता आकाशमें परममहापरिमाण या विभुत्वको प्राप्त होता है क्योंकि उसके प्रकर्षका तारतम्य देखा जाता है, उसी तरह ज्ञानकै प्रकर्ष में भी तारतम्य देखा जाता है, अतः जहाँ वह ज्ञान निरतिशय' अर्थात् सम्पूर्ण अवस्थाको प्राप्त हो जाय वहीं सर्वज्ञता आ जाती है । माणिक्य आदिसे मलको हटाते-हटाते जैसे वह अत्यन्त निर्मल हो जाता है और मल समूल नष्ट हो जाता है उसी तरह ज्ञान भी आवरणके सम्पूर्णरूपसे हटनेपर निर्मल हो जाता है । यदि ज्ञानकी परम प्रकर्ष दशाकी संभावना न हो तो वेदके द्वारा भी अतीन्द्रियार्थोंका बोध कैसे हो सकता है ? 'संसारमें कोई सर्वज्ञ नहीं हैं। इस प्रकार जगत्की सर्वज्ञरहितताका परिज्ञान भी सर्वज्ञको ही हो सकता है असर्वज्ञको नहीं।। इस तरह अनेक साधक प्रमाणोंको बताकर उन्होंने जिस एक महत्त्वपूर्ण हेतुका प्रयोग किया है', वह है 'सुनिश्चिताऽसंभवबाधकप्रमाणत्व' अर्थात बाधक प्रमाणोंकी असंभवताका पूर्ण निश्चय होना । किसी भी वस्तुकी सत्ता सिद्ध करने के लिए 'बाधकाऽभाव' स्वयं एक बलवान साधक प्रमाण है। जैसे 'मैं 'यहाँ सुखका साधक प्रमाण यही हो सकता है कि मेरे सुखी होनेमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है। कि सर्वज्ञकी सत्तामें कोई बाधक प्रमाण नहीं है, अतः उसकी निर्बाध सत्ता होनी चाहिये । भगवान् महावीरके समयमें स्वयं उनकी प्रसिद्धि सर्वज्ञक रूपमें थी। उनके शिष्य उन्हें सोते, जागते, हर हालतमें ज्ञानदर्शनवाला सर्वज्ञ बताते थे । पाली पटिकोंमें उनकी सर्वज्ञताकी परीक्षाके एक दो प्रकरण हैं, जिनमें सर्वज्ञताका एक प्रकारसे उपहास ही किया है। न्यायबिन्दु नामक ग्रन्थमें धर्मकीर्तिने दृष्टान्ताभासोंके उदाहरणमें ऋषभ और वर्धमानकी सर्वज्ञताका उल्लेख किया है। इस तरह प्रसिद्धि और युक्ति दोनों क्षेत्रों में बौद्ध-ग्रन्थ वर्धमानकी सर्वज्ञताके एक तरहसे विरोधी ही रहे हैं । इसका कारण यही मालूम होता है कि बुद्धने अपनेको केवल चार आर्य सत्योंका ज्ञाता ही बताया था, बल्कि बुद्धने स्वयं अपनेको सर्वज्ञ कहनेसे इनकार किया था। वे केवल अपनेको धर्मज्ञ या मार्गज्ञ मानते थे और इसीलिए उन्होंने आत्मा मरणोत्तर जीवन और लोककी सान्तता और अनन्तता आदिके प्रश्नोंको अव्याकृत-न कहने लायक-कहकर इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नोंमें मौन ही रखा, जब कि महावीरने इन सभी प्रश्नोंके अनेकान्तदृष्टिसे उत्तर दिये और शिष्योंकी जिज्ञासाका समाधान किया । तात्पर्य यह है कि बुद्ध केवल धर्मज्ञ थे और महावीर सर्वज्ञ । यही कारण है कि बौद्ध-ग्रन्थों में मुख्य सर्वज्ञता सिद्ध करनेका जोरदार प्रयत्न नहीं देखा जाता, जब कि जैनग्रन्थोंमें प्रारम्भसे ही इसका प्रबल समर्थन मिलता है। आत्माको ज्ञानस्वभाव माननेके बाद निरावरण दशामें अनन्तज्ञान या सर्वज्ञताका प्रकट होना स्वाभाविक ही है । सर्वज्ञताका व्यावहारिक रूप कुछ भी हो, पर ज्ञानकी शुद्धता और परिपूर्णता असम्भव नहीं है । (१) देखो न्यायवि० श्लो० ४०७ । न्यायवि. वि. द्वि० भाग प्रस्तावना पृ० २६ । (२) "तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्"-योगसू० ११२५ । व्यासभा० १।२५ । सिद्धिवि० ८८ । (३) सिद्धिवि० ८।९-१५। (४) “अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् "-सिद्धिवि० वृ० ८।६। 'जैनदर्शन' पृ० ३०९। (५) "यः सर्वज्ञः आप्तो वा स ज्योतिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टवान् तद्यथा ऋषभवर्धमानादिरिति । तत्रासर्वज्ञतानाप्ततयोः साध्यधर्मयोः संदिग्धो व्यतिरेकः।"-न्यायबि० ३।१२० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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