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विषयपरिचय: प्रत्यक्ष प्रमाणमीमांसा
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को देखता है । 'आत्मा के ज्ञान दर्शन आदि गुण हैं,' इसे वह भेदकल्पनासाक्षेप अशुद्धद्रव्यार्थिक मानता है । तथा 'केवलज्ञानादि जीव है' इसे वह निरुपाधि गुणगुण्यभेदविषयक अशुद्ध निश्चयनय समझता है । '
सारांश यह है कि शुद्धनिश्चयनयकी दृष्टिमें किसी भी प्रकारका भेद या अशुद्धता नहीं रहती । इस दृष्टिसे जब सोचते हैं तो जिस प्रकार वर्णादि आत्मा के नहीं है उसी प्रकार रागादिभी आत्माक नहीं हैं और गुणस्थानपर्यन्त समस्त ज्ञानादि भाव भी आत्मा के नहीं हैं । इसी दृष्टिसे यदि ' जाणदि पस्सदि' का व्याख्यान करना हो तो प्रथम तो 'ज्ञान और दर्शन' ये भेद ही नहीं होंगे, कदाचित् स्वीकार करके चलें भी, तो इनका क्षेत्र 'स्वस्वरूप' ही हो सकता है 'स्व' के बाहर नहीं । परका स्पर्श करते ही वह पराश्रित व्यवहारकी मर्यादा में जा पहुँचेगा । यह नय ज्ञानका पर पदार्थको जानना व्यवहार समझता है । निश्चयतः वह स्वरूपज्योति है और स्वनिमग्न है, उसका पराश्रितत्व व्यवहारकी सीमामें है ।
जैनदर्शनकी नयप्रक्रिया अत्यन्त दुरूह और जटिल है । इसका अन्यथा प्रयोग वस्तुतत्त्वका विपर्यास करा सकता है । अतः जिस प्रकरणमें जिस विवक्षासे जिस नयका प्रयोग किया गया है उस प्रकरण में उसी विवक्षासे समस्त परिभाषाओंको देखना और लगाना चादिए । किसी एक परिभाषाको शुद्धनिश्चय नयकी दृष्टि से लगाकर तथा अन्य परिभाषाओंको व्यवहारकी दृष्टिसे पकड़कर घोलघाल करनेमें जैन शासनका यथार्थ निरूपण नहीं हो सकता किन्तु विपर्यास ही हाथ लगता है ।
समन्तभद्रादि आचार्यों का मत
समन्तभद्र आदि आचार्योंने सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंका प्रत्यक्षत्व अनुमेयत्व हेतुसे सिद्ध किया है। बौद्धोंकी तरह किसी भी जैनग्रन्थमें धर्मज्ञता और सर्वज्ञता विभाजन कर उनमें गौणमुख्यभाव नहीं बताया है । सभी जैन तार्किकोंने एक स्वरसे त्रिकाल त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थोंके पूर्ण परिज्ञानके अर्थ में सर्वज्ञताका समर्थन किया है। धर्मज्ञता तो उक्त पूर्ण सर्वज्ञता के गर्भ में ही निहित मान ली गई है ।
आचार्य वीरसेन स्वामीने जयधक्लाटीकामें केवलज्ञानकी सिद्धि के लिये एक नवीन ही युक्ति दी है । वे लिखते हैं कि-केवलज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है । यह केवलज्ञान ज्ञानावरण कर्मसे आवृत होता है और आवरणके क्षयोपशमके अनुसार मतिज्ञान आदिके रूपमें प्रकट होता है । तो जब हम अंशभूत मतिज्ञान आदिका स्वसंवेदन करते हैं तब उस रूपसे अंशी केवलज्ञानका भी अंशतः स्वसंवेदन हो जाता है । जैसे पर्वतके एक अंशको देखनेपर भी पर्वतका व्यवहारतः प्रत्यक्ष माना जाता है उसी तरह मतिज्ञानादि अवयवों को देखकर अवयवी रूप केवलज्ञान यानी ज्ञानसामान्यका प्रत्यक्ष भी स्वसंवेदनसे ही हो जाता है । यहाँ आचार्यने केवलज्ञानको ज्ञानसामान्यरूप माना है 1
"अकलंकदेवने सर्वज्ञताका समर्थन करते हुए लिखा है कि - आत्मामें समस्त पदार्थोंके जाननेकी पूर्ण सामर्थ्य है । संसारी अवस्थामें ज्ञानावरणसे आवृत होनेके कारण उसका पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता, पर जब चैतन्यकै प्रतिबन्धक कर्मोंका पूर्ण क्षय हो जाता है, तब उस अप्राप्यकारी ज्ञानको समस्त अर्थोंके जाननेमें क्या बाधा है ? यदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान न हो सके तो सूर्य चन्द्र आदि ज्योतिर्ग्रहों की
(१) "भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा आत्मनो दर्शनज्ञानादयो गुणाः ।”
- आलापप० पृ० १६८ ।
(२) " तत्र निरुपाधिगुणगुण्यभेदविषयकोऽशुद्धनिश्वयः यथा केवलज्ञानादयो जीव इति ।"
- आलापप० पृ० १७७ ।
(३) " सूक्ष्मान्तरितः दूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा ।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥" - आप्तमी० श्लो० ५ ।
(४) देखो न्यायवि० श्लो० ४६५ ।
(५) “धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत्पुंसां कुतः पुनः । ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादः श्रुताच्चेत्साधनान्तरम् ॥”
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- सिद्धिवि०, डी० पृ० ४१३ । न्यायवि० श्लो० ४१४ ।
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