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विषयपरिचय प्रत्यक्ष-प्रमाणमीमांसा
१०५ उत्पत्ति के लिये सचेष्ट आत्माका अवलोकन रूप स्वात्मावलोकन जो कि आगमिकयुगका दर्शन है, तथा ज्ञानकालमें होनेवाला स्वरूपसंवेदन जो कि ज्ञानका ही धर्म है, दोनों में प्रमाण और प्रमाणाभास व्यवहार नहीं होता । दर्शनोंके आगमिक लक्षण इस प्रकार हैं१. चक्षुदर्शन-चक्षुरिन्द्रियजन्य ज्ञानकी उत्पत्ति के लिये सचेष्ट आत्माका निराकार अवलोकन । २. अचक्षुदर्शन-चक्षुसे भिन्न इन्द्रियोंसे शानकी उत्पत्ति के लिये सचेष्ट आत्माका निराकार अवलोकन । ३. अवधिदर्शन-अवधिज्ञानकी उत्पत्ति या उपयोगके लिये सचेष्ट आत्माका निराकार अवलोकन ।
चूँकि मनःपर्यय ज्ञान ईहामतिज्ञानपूर्वक होता है अतः उसके अव्यवहितपूर्व क्षणमें निराकार अवस्था न होनेके कारण मनःपर्ययदर्शन नहीं माना गया।
४ केवल दर्शन-केवलज्ञानके समय क्रमवर्तित्वका कारण क्षयोपशम नहीं रहता, अतः केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् ही होते हैं। इस समय यह विवेक करना कठिन है कि उस निरावरण उपयोगावस्था या चैतन्यावस्थाके किस अंशको दर्शन कहा जाय और किस अंशको ज्ञान | इसीलिये युगपद्वादका पर्यवसान केवलज्ञान और केवलदर्शनके अभेदमें ही होता है ।
यद्यपि सन्मतितर्क और प्रा० पंचसंग्रह आदिमें उपलब्ध 'जं सामण्णग्गहणं' गाथा से ज्ञात होता है कि दर्शनके बाह्यार्थके सामान्यावलोकनकी चरचा पुरानी है फिर भी उसे व्यवस्थित दार्शनिक रूप आचार्य पूज्यपादके समयसे मिला है। उन्होंने यह दर्शन-अवस्था' विषय और विषयीके सन्निपातके अनन्तर पदार्थकी सामान्यसत्ताके प्रतिभासके रूपमें मानी है जबकि स्वात्मावलोकनरूप अवस्था विषयविषयिसन्निपातके पहिले होती है।
इतना होनेपर भी किसीने दर्शनको प्रमाण कोटिमें लानेका प्रयत्न नहीं किया । यद्यपि जैनदर्शनमें प्रमाणकी चर्चा आनेके बाद यह प्रश्न स्वाभाविक था कि इसे प्रमाण माना जाय या नहीं। किन्तु सन्मतितर्कके टीकाकार अभयदेवसूरिने दर्शनको भी ज्ञानकी तरह प्रमाण माननेका मत व्यक्त किया है । वे लिखते हैं किनिराकार और साकार दोनों ही उपयोग अपने विषयको मुख्यरूपसे प्रतिभास करनेके कारण तथा इतर विषयको गौण करनेके कारण प्रमाण हैं। यदि वे इतर विषयका निराकरण करते हैं तो प्रमाणता नहीं आ सकती । केवल सामान्यग्राहीं या केवल विशेषग्राही उपयोग हो ही नहीं सकता । सामान्यग्राही उपयोगमें भी यत्किंचित् विशेषका प्रतिभास तथा विशेषग्राही उपयोगमें तदनुगत सामान्यका प्रतिभास है ही । सम्भवतः यह एक ही आचार्य हैं जिन्होंने दर्शनमें भी आपेक्षिक प्रमाणता घटानेका प्रयत्न किया है। माणिक्यनन्दि और तदनुगामी वादिदेवसूरिने 'दर्शन' को प्रमाणाभास इसलिये कहा है कि वह स्वविषयका उपदर्शक या स्वपरका व्यवसायक नहीं है। यथार्थतः जिस दर्शनको ये प्रमाणाभास कहना चाहते हैं वह बौद्धाभिमत निर्विकल्पक दर्शन ही है; क्योंकि इन्होंने प्रमाणकी रेखा व्यवसायात्मक ज्ञानसे खीची है।
प्राचीन आगम और सिद्धान्तग्रन्थों में केवलज्ञानके वर्णनमें “जाणादि पस्सदि" और "जाणमाणे पासमाणे" शब्द आते हैं। इससे लगता है कि सामान्यतया ज्ञान और दर्शन इन दो गुणोंका साथ-ही-साथ वर्णन होता था। पर जब इसका दार्शनिक दृष्टिसे विश्लेषण प्रारम्भ हुआ तो प्रथम यह व्याख्या प्रस्तुत हुई कि-स्वरूपका देखना और परपदार्थका जानना साथ-ही-साथ होता है। फिर यह व्याख्या आई कि-वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है अतः सामान्यांशका देखना और विशेषांशका जानना होता
(१) "विषयविषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति ।"-सर्वार्थसि. १।१५।।
(२) “निराकारसाकारोपयोगौ तूपसर्जनीकृततदितराकारौ स्वविषयावभासकत्वेन प्रवर्तमानौ प्रमाणं न तु निरस्तेतराकारौ, तथाभूतवस्तुरूपविषयाभावेन निर्विषयतया प्रमाणत्वानुपपत्तेः इतरांशविकलैकांशरूपोपयोगसत्तानुपपत्तेश्च ।"-सन्मति० टी० पृ. ४५८ ।
(३) परीक्षामुख ६।१ । प्रमाणनयत० ६२५ । (४) "समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति"-प्रकृति अनु० । - "जाणमाणे एवं च णं विहरइ"-आचा० श्रुत० २ चू०३।
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