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प्रस्तावना
ज्ञान निश्चयनयसे आत्मप्रकाशक है तो वह दर्शन ही है । आत्मा निश्चयनयसे आत्मप्रकाशक है तो वह दर्शन ही है । (गा० १६४)
आत्माके बिना ज्ञान नहीं और ज्ञानके बिना आत्मा नहीं, इसमें कोई सन्देह नहीं है । अतः जैसे ज्ञान स्वपरप्रकाशक होता है इसी तरह दर्शन भी। (गा० १७०)
इस वर्णनसे हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि-आ० कुन्दकुन्दका अभिप्राय 'दर्शन आत्मशक है' इस मतके खण्डनका नहीं है, किन्तु नयदृष्टिसे उसका समर्थन करते हुए परप्रकाशक ज्ञानसे अभिन्न आत्मासे अभेद रखनेके कारण दर्शनको भी ज्ञानकी तरह स्वपरप्रकाशक कहने का है। आ० सिद्धसेन दिवाकरने सन्मतितर्क (२।१) में दर्शनका लक्षण करते हुए लिखा है
___ "जं सामण्णग्गहणं दंणमेयं विसेसियं णाणं ।" अर्थात् सामान्यग्रहणको दर्शन कहते हैं और विशेषग्रहणको ज्ञान । बृहद्रव्य संग्रह', कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह' तथा गोम्मटसार जीवकांड में इस गाथाका यह रूप है
"जं सामण्णग्गहणं भावाणं णेव कट्टमायारं ।
अविसेसिदूण अढे दंसणमिदि भण्णए समए ॥" अर्थात् पदार्थों के आकारका ग्रहण नहीं करके साधारण रूपसे जो सामान्यग्रहण है वह दर्शन है।
इन लक्षणों में स्पष्टतया दर्शन 'आत्मदर्शन'की सीमासे निकलकर 'पदार्थके सामान्यग्रहण तक जा पहुँचा है।
धवला टीका में जो शंका-समाधान दिया गया है उसमें इस गाथापर भी चर्चा की गई है और उसके 'सामान्यग्रहण' का भी 'आत्मग्रहण' ही अर्थ किया गया है। अस्तु इससे इतना स्पष्ट हो जाता है कि आगमिक युगमें भी 'दर्शन'के सम्बन्धमें दो स्पष्ट मत थे । और पुराना मत 'आत्मदर्शन' के ही माननेका था । इसका प्रमाण यह है कि मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यात्वके साहचर्यसे विपर्यय भी होते हैं पर इनके पहिले होनेवाले चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनमें यह विपरीतता नहीं आती। इतना ही नहीं किन्तु लोकप्रसिद्ध संशय विपर्यय और अनध्यवसाय आदि अप्रमाणज्ञानोंक पहिले भी चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन ही होते हैं उनमें विपरीतता नहीं मानी जाती । यदि दर्शनका सम्बन्ध बाह्य पदार्थके सामान्यावलोकनसे होता तो संशयादिज्ञानोंके पूर्व होनेवाले दर्शनों में संशयत्व विपर्ययत्व और अनध्यवसायत्व अवश्य दिखाया जाता और दर्शनके भी 'ज्ञान-अज्ञान'की तरह 'दर्शन-अदर्शन' भेद किये जाते । 'स्वात्मदर्शन' रूप परिभाषाके रहनेसे तो यह असंगति इसलिये नहीं आती कि स्वात्मदर्शन या स्वात्मावलोकन तो चाहे सम्यग्ज्ञान हो या मिथ्याज्ञान प्रमाणज्ञान हो या अप्रमाणज्ञान, सभीके पहिले निर्वाधरूपसे होता है, पहिले ही नहीं उन ज्ञानों के कालमें भी होता है। मिथ्याज्ञानोंका स्वसंवेदन भी सम्यक् होता है; क्योंकि स्वसंवेदनकी दृष्टिमें प्रमाण और अप्रमाण विभाग ही नहीं है। यह विभाग तो बाह्यार्थकी दृष्टिसे होता है।
इस तरह 'दर्शन' आगमिक युगमें प्रमाण और प्रमाणाभासकी परिधिसे ऊपर था। वह सर्वत्र व्याप्त स्वात्मावलोकनरूप था । निराकार इसलिये था कि उस कालमें आत्मा शेयको नहीं जानता था । ज्ञानकालका स्वसंवेदन तो ज्ञानकी तरह साकार ही होता है। क्योंकि साकारज्ञानकी परिणतिके समय तद्रप आत्माका संवेदन निराकार नहीं रह सकता। उस समय यह स्वसंवेदन उसी ज्ञानपर्यायका धर्म है जो उस समय हो रही है । परन्तु ज्ञानकी प्रमाणता और तदाभासता इस स्वसंवेदनको भी नहीं छूती । तात्पर्य यह कि ज्ञानकी
(१) गा० ४३। (२) गा० ४३ । (३) ११३८ । (४) गा० ४८१ । (५) धवला, सत्प्र० पु. १ पृ० १४९ में यह गाथा उद्धृत है। (६) वही, पृ० १४५-१४९ । (७) "मतिश्रु तावधयो विपर्ययश्च"-त० सू० १॥३१ । (6) आप्तमी० श्लो० ८३ ।
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