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विषयपरिचय : प्रमाणमीमांसा
१०३ "अथवा चैतन्यशक्तद्वौं आकारौ ज्ञानाकारो शेयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकारः प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् शेयाकारः।"
-त० वा० १०६ । अर्थात् चैतन्यशक्तिके दो आकार होते हैं-एक ज्ञानाकार और दूसरा ज्ञेयाकार । सप्रतिबिम्ब दर्पणकी तरह ज्ञेयाकार होता है तथा प्रतिबिम्बशून्य दर्पणकी तरह ज्ञानाकार | इस विवेचनसे इतना तो ज्ञात हो जाता है कि ज्ञानकी ऐसी अवस्था भी होती है जिसमें ज्ञेयका प्रतिभास नहीं होता ।
सिद्धान्त ग्रन्थों में दर्शनकी परिभाषा करते समय यही बात विशेष रूपसे ध्यानमें रखी गई है । धवला टीकामें दर्शनकी परिभाषा करते हुए लिखा है कि-सामान्यविशेषात्मक बाह्यार्थ के ग्रहणको ज्ञान कहते हैं तथा स्वरूपके ग्रहणको दर्शन कहते हैं। जब उपयोग आत्मेतर पदार्थोंको जाननेके समय ज्ञेयाकार या साकार होता है तब उसकी ज्ञानपर्याय विकसित होती है और जब वह बाह्य पदार्थोंमें उपयुक्त न होकर मात्र चैतन्यरूप रहता है तब निराकार अवस्थामें दर्शन कहलाता है । दर्शन अन्तरङ्ग अर्थको विषय करनेवाला होता है। चैतन्यकी प्रकाशवृत्तिको दर्शन कहते हैं। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि-उत्तर ज्ञानोत्पत्तिके लिये आत्मा जो प्रयत्न करता है उस प्रयत्नावस्थाका संचेतन दर्शन है। यह इन्द्रिय और पदार्थके संपातसे पहिलेकी अवस्था है । जब आत्मा अमुक पदार्थ के ज्ञानसे उपयोगको हटाकर दूसरे पदार्थके जानने के लिए प्रवृत्त होता है तब वह बीचकी निराकार यानी ज्ञेयाकारशून्य या स्वाकारवाली दशा दर्शन है।
आ० कन्दकन्द नियमसार (गा० १६०) में "दिट्टी अप्पपयासया चेव" लिखकर 'दर्शन आम प्रकाशक होता है' यह पूर्वपक्ष उपस्थित करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि 'दर्शन आत्मप्रकाशक होता है पर द्रव्यप्रकाशक नहीं' यह मत बहुत पुराना है। यह मत जैन सिद्धान्तियोंका ही है । कुन्दकुन्दाचार्य आगेकी चरचामें नयदृष्टिसे इसी मतका समर्थन करते हुए भी अन्तमें आत्मासे अभिन्न होने के कारण दो भी स्वपर प्रकाशक कहते हैं
___ 'ज्ञान परप्रकाशक, दर्शन आत्मप्रकाशक और आत्मा स्वपर प्रकाशक होता है। यदि ऐसा मानते हो तो; (गा० १६०)
___ यदि ज्ञान परप्रकाशक है तो ज्ञानसे दर्शन भिन्न हो जायगा, क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत नहीं होता यानी परका प्रकाशक नहीं होता (गा० १६१)।
यदि आत्मा परप्रकाशक है तो आत्मासे दर्शन भिन्न हो जायगा, क्योंकि दर्शन परद्रव्यका प्रकाशक नहीं होता।
यदि ज्ञानको परप्रकाशक व्यवहारनयसे मानते हो तो ज्ञान और दर्शन एक हैं। यदि आत्माको परप्रकाशक व्यवहारनयसे मानते हो तो आत्मा और दर्शन एक हैं । (गा० १६३)
(1) "ततः सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् ।... भावानां बाह्यार्थानामाकारं प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद् ग्रहणं तद् दर्शनम्'(पृ.१४९) प्रकाशवत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका प्रकाशो ज्ञानम्, तदर्थमात्मनो वृत्तिः प्रकाशवृत्तिः दर्शनम् , विषयविषयिसम्पा. तात् पूर्वावस्था इत्यर्थः । (पृ० १४९) नैते दोषाः दर्शनमाढौकन्ते तस्य अन्तरङ्गार्थविषयत्वात् ।"-ध० टी. सत्प्ररू० प्रथमपुस्तक।
(२) "उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं यत्प्रयत्नं तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तदर्शनं भण्यते । तदनन्तरं यद् बहिर्विषयविकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तज्ज्ञानमिति वार्तिकम् । यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थं चित्ते जाते सति घटविकल्पाद् व्यावृत्त्य यत् स्वरूपे प्रथममवलोकनं परिच्छेदनं करोति तदर्शनमिति । तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यद् बहिर्विषयरूपेण पदार्थ- . ग्रहणविकल्पं करोति तज्ज्ञानं भण्यते ।"-बृहद् द्रव्यसं० टी० गा० ४३॥
(३) "ण हवदि परदब्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।"-नियमसा० गा० १६१।
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