________________
प्रस्तावना
है । किन्तु इस व्याख्यासे भी सन्तोष नहीं होता था; क्योंकि इसमें ज्ञान और दर्शन दोनों एकाङ्गी हो जाते थे। इसीका समन्वय अभयदेवसूरिने दोनोंको उभयग्राहक मानकर और दोनोंको प्रमाण मानकर किया है।
यथार्थतः जब ज्ञानको प्रमाण माननेका दार्शनिक क्रम चालू हुआ तो ज्ञानप्राग्भावी दर्शन अपने आप प्रमाण-अप्रमाणकी चरचासे बहिर्भूत हो जाता है। अकलङ्कदेवने इसी तत्त्वको ध्यानमें रखकर ऐसे ज्ञानको प्रमाण कहा जो संव्यवहारोपयोगी हो। चूँकि दर्शन न तो संव्यवहारमें उपयोगी है और न किञ्चित्कर ही, अतः वह प्रमाणकोटिमें नहीं आ सकता । वे निर्णयात्मकत्व विशेषण से संशय और विपर्ययके साथ-ही-साथ अकिञ्चित्कर दर्शनका भी व्यवच्छेद कर देते हैं। वे निर्णयात्मक अविसंवादी और व्यवहारोपयोगी ज्ञानको प्रमाण मानकर सविकल्पकज्ञानको ही प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं निर्विकल्पकको नहीं । प्रत्यक्षका विषय
जैन दार्शनिकोंकी प्रमाणव्यवस्थाका सम्बन्ध प्रमेयव्यवस्थासे है। उन्होंने पदार्थका स्वरूप उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक परिणामी मानकर उसे सर्वथा क्षणिक या नित्य पक्षसे भिन्न नित्यानित्यात्मक स्वीकार किया है। उनके द्वारा स्वीकृत छह द्रव्योंमें शुद्धजीव आकाश काल धर्म और अधर्म ये द्रव्य सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके विषय नहीं होते । संसारी आत्माएँ भी कायव्यापार और वचन आदिसे अनुमानके विषय होती हैं, इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षके विषय नहीं होतीं। इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षके विषय तो केवल पुद्गल द्रव्य ही होते हैं। जैनदर्शन वास्तव बहुत्ववादी है। वह प्रत्येक परमाणुको परमार्थ अखण्ड और स्वतन्त्र द्रव्य मानता है। प्रत्येक परमाणु प्रतिसमय अपने उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक स्वभावके कारण अपनी पर्यायोंमें अविच्छिन्न भावसे अनादिकालसे चला आ रहा है और आगे अनन्त काल तक चला जायगा । जैनके परमाणुद्रव्य और बौद्धके स्वलक्षण परमाणुकी स्थिति लगभग एक जैसी है। वह जैसे प्रतिक्षण परिवर्तमान है तो यह भी प्रतिक्षण परिणामी है। प्रश्न है घट पट आदि स्थूल दृश्यमान पदार्थोंका। जब इनके उपादानभूत द्रव्य परमाणुरूप हैं तो यह स्थिर और स्थूल दिखाई देनेवाला है क्या ? इस सम्बन्धमें बौद्धोंका कहना है कि-अत्यासन्न किन्तु अत्यन्त असंसृष्ट परमाणुओंके पुञ्जमे हम स्थिरता और स्थूलताका अभिमान करते हैं। उन परमाणुओंमें एक अतिरिक्त अवयविद्रव्य नहीं आता । वही पुंज हमें स्थूल दृष्टिसे घट पट आदि रूपसे केवल प्रतिभासित ही नहीं होता, तत्सम्बन्धी जलधारण शीतनिवारण आदि अर्थक्रियाएँ भी करता है। यदि घड़ेका बुद्धिसे विश्लेषण किया जाय तो आखिर वह परमाणुपुञ्जके सिवाय क्या बचता है ? नित-नूतन सदृश पर्यायोंमें हमें स्थिरता या एकत्वका भ्रम होता है, और होता है पुञ्ज में स्थूलताका भ्रम ।
वेदान्तीने एक ब्रह्मकी ही पारमार्थिक सत्ता मानी है। घट पट आदि उसी ब्रह्मके प्रातिभासिक या व्यावहारिक रूप हैं, परिणमन नहीं। अविद्याके कारण वही परमार्थसद् ब्रह्म, घट पट आदि अचेनात्मक और मनुष्य पशु आदि चेतनात्मक नाना रूपोंमें प्रतिभासित होता है। एक पक्ष यह भी है कि एक ब्रह्म ही यावत् प्रतिभासमान चेतन अचेतन जगत्का उपादान कारण है। अन्ततः यह सब प्रपञ्च है अविद्यामूलक ही।
सांख्यने एक ब्रह्मके ही चेतन और अचेतनरूप विरुद्ध परिणमनकी आपत्तिको हटाने के लिये अनन्त चेतनोंका स्वतन्त्र अस्तित्व तथा जड़ प्रकृतिका स्वतन्त्र अस्तित्व माना है। इनके मतसे जड़ और चेतन एक दूसरेके प्रति परिणामीकारण नहीं होते । एक ही जड़ प्रकृति पृथिवी जल आदि मूर्त तथा आकाश नामक अमूर्त भूतके रूपमें परिणमन करती है। घट पट आदि कार्य उसी सूक्ष्म प्रकृति के परिणमन हैं। यहाँ भी लगभग वैसा ही विरोध वर्तमान है कि कैसे एक प्रकृति एक साथ निष्क्रिय और सक्रिय, मूर्त और अमूर्त आदि नानारूपोंमें परिणमन कर सकती है ? फिर घट पट आदिमें विरुद्ध परिणमन क्यों दृश्यमान होते हैं ?
न्यायवैशेषिक परम्परामें इस असंगतिको हटाने के लिये पृथिवी आदि द्रव्य सब जुदे-जुदे स्वीकार किये
(१) "तद्धेतुत्वं पुनः सन्निकर्षादिवन्न दर्शनस्य । अभ्रान्तत्वेऽपि सर्वथा निर्णयवशात् प्रामाण्यसिद्धेः .."अकिञ्चित्करसंशयविपर्ययव्यवच्छेदेन निर्णयात्मकत्वं नान्यथा ।"-सिद्धिवि. ११३, पृ० १३ ।
(२) “सदृशापरोत्पत्तिविप्रलब्धो वा लुनपुनर्जातनखकेशादिवत्"-प्र० वातिकाल. पृ. १४४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org