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विषयपरिचय : प्रमाणमीमांसा आदि स्वयं अचेतन हैं, अत एव अज्ञानरूप होनेके कारण प्रमितिमें साक्षात् करण नहीं हो सकते । यद्यपि कहीं-कहीं इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि ज्ञानकी उत्पादक सामग्रीमें सम्मिलित हैं पर उनका सार्वत्रिक और सार्वकालिक अन्वय-व्यतिरेक न मिलनेके कारण उनकी कारणता अव्याप्त हो जाती है । सामान्यतया जो क्रिया जिस गुणकी पर्याय है उसमें वही साधकतम हो सकता है । चूँकि 'जानाति' क्रिया ज्ञानगुणकी पर्याय है अतः उसमें अव्यवहित कारण ज्ञान ही हो सकता है। प्रमाण चूँकि 'हित प्राप्ति और अहित परिहारमें समर्थ होता है अतः वह ज्ञान ही हो सकता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ सिद्धिविनिश्चयमें इसी ज्ञानकी प्रमाणताका समर्थन करते हुए लिखा है कि प्रतिपत्ता अर्थात् आत्माको प्रमिति क्रिया या स्वार्थविनिश्चयमें जिसकी अपेक्षा होती है वही प्रमाण है और वह साधकतम रूपसे अपेक्षणीय है ज्ञान ।
ज्ञानका स्वसंवेदित्व
मीमांसक ज्ञानको परोक्ष मानते हैं। उनका कहना है कि बुद्धि स्वयं परोक्ष है; उसके द्वारा पदार्थका ज्ञान होनेपर हम उसे अनुमानसे जानते हैं । किन्तु जिस प्रकार देवदत्तकी बुद्धिसे यज्ञदत्तको पदार्थका बोध नहीं होता क्योंकि देवदत्तकी बुद्धिका यज्ञदत्तको प्रत्यक्ष नहीं होता उसके लिये वह परोक्ष है, उसी तरह यदि देवदत्तकी बुद्धि स्वयं देवदत्तको प्रत्यक्ष नहीं है तो ऐसी परोक्षबुद्धिसे स्वयं देवदत्तको भी पदार्थका बोध कैसे हो सकेगा ?
नैयायिक ज्ञानको ज्ञानान्तरवेद्य मानते हैं । इनका सबसे बड़ा तर्क है 'स्वात्मनि क्रियाविरोध' का । अर्थात् जैसे कोई कितनी ही तीक्ष्ण तलवार क्यों न हो वह अपने आपको नहीं छेद सकती, कितना ही सुशिक्षित नटबटु क्यों न हो वह अपने ही कन्धेपर नहीं नाच सकता। किन्तु प्रदीपका दृष्टान्त स्वपरप्रकाशकत्वकी सिद्धिके लिये उपलब्ध है। प्रदीप अपने-आपको भी प्रकाशित करता है और घटपटादि पदार्थों को भी । ज्ञानान्तरवेद्य पक्षमें अनवस्था दूषण तो स्पष्ट ही है ।
सांख्यके मतसे बुद्धि प्रकृतिका धर्म है वह पुरुषके द्वारा संचेतित होती है। पुरुषके संयोगसे महदादि स्वयं अचेतन होकर भी चेतनायमान होते हैं । पुरुष बुद्धिके द्वारा अध्यवसित पदार्थोंका स्वयं संचेतन करता है। किन्तु ज्ञान बुद्धि उपलब्धि और चेतना आदि सभी चेतनके ही धर्म हैं, ये प्रायः पर्यायवाची हैं । किंचित् क्रियाभेद होनेपर भी इनमेंसे कोई भी चेतनत्वकी सीमाको नहीं लाँघता । कूटस्थ नित्य पुरुष यदि स्वयं कर्ता नहीं है तो भोक्ता अर्थात् भोगक्रियाका कर्ता कैसे हो सकता हैं ? अतः चेतन और चेतनके धर्म प्रदीपकी तरह स्वयं प्रकाशमान होते हैं ।
बौद्धपरम्परा चाहे वह सौत्रान्तिक मतावलम्बिनी हो या विज्ञानवादावलम्बिनी दोनों ही ज्ञानमात्रका स्वसंवेदित्व धर्म स्वीकार करती हैं। कोई भी ऐसी चित्तमात्रा या चित्तावस्था नहीं है जो स्वसंविदित या
(१) "हिताहिताप्तिनिमुक्तिक्षमम्"-न्यायवि० पृ० १०५ । परीक्षामु. १२ । (२) “प्रतिपत्तुरपेक्ष्यं यत् प्रमाणं न तु पूर्वकम्"-सिद्धिवि० १।३ ।
(३) "अप्रत्यक्षा नो बुद्धिः, प्रत्यक्षोऽर्थः, स बहिर्देशसम्बद्धः प्रत्यक्षमनुभूयते, ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छति बुद्धिम् ।"-शाबरभा० ११५ ।
(४) "ज्ञानान्तरसंवेयं संवेदनं वेद्यत्वात् घटादिवत् ।"-प्रश० व्यो० पृ० ५२९ । विधिवि. न्यायकणि० पृ. २६७ ।
(५) "तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् ।"-सांख्यका० २० ।
(4) "बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनान्तरम् ।"-न्यायसू० १११११५ । प्रश० भा० पृ० १७१ । तत्त्वसं० पृ० ११५ । न्यायकुमु. पृ० १९३ ।
(७) "सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं स्वसंवेदनम्"-न्यायबि० ॥११।
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