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प्रस्तावना
क्षयसे शान्त हो जाता है। इस तरह चित्तसन्ततिका उच्छेद निर्वाण है, यह पक्ष प्रचलित है। इससे स्पष्ट है कि बौद्ध परम्परामें ज्ञान जड़ पदार्थोंका धर्म नहीं है किन्तु वह चित्तप्रवाह रूप है ।
जैन परम्पराने वस्तुमात्रको उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूपसे त्रयात्मक माना है, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ चाहे वह जड़ हो या चेतन प्रतिक्षण अपनी पूर्व पर्यायको छोड़ता है, नूतन पर्यायको धारण करता है और उनके अनादि अनन्त प्रवाहरूप ध्रौव्यको स्थिर रखता है। इस ध्रौव्यके कारण प्रतिक्षण परिवर्तित होते हुए भी द्रव्य इतना नहीं बदलता कि वह अपना तद्र्व्यत्व ही समाप्त कर दे और न उपनिषद्वादियोंकी तरह कूटस्थ नित्य ही रहता है कि उसमें कोई परिवर्तन या परिणमन ही न हो। यह परिणामी आत्मा उपयोग स्वरूप है, चैतन्य स्वरूप है। यही उपयोग या चैतन्य जब शेयको जानता है अर्थात् ज्ञेयाकार होता है तब साकार-ज्ञान कहलाता है और जब स्वरूपका संचेतन करता है तब दर्शन कहलाता है। उपयोग या
चैतन्य क्रमशः ज्ञान और दर्शनरूपसे परिणति करते हैं। तात्पर्य यह कि ज्ञान आत्माकी पर्याय है और ऐसी पर्याय जिसमें शेयका प्रतिभास होता है। इसे गुण भी कहते हैं; क्योंकि यही सामान्य ज्ञान अपनी घटज्ञान पटज्ञान आदि अवान्तर पर्यायोंके रूपमें परिणत होता है। इस ज्ञानका आत्मासे तादात्म्य सम्बन्ध है अर्थात् आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है । अन्तर इतना ही है कि आत्मा ज्ञान दर्शन सुख आदिका आधार है जब कि ज्ञान उसका एक गुण या अवस्थाविशेष है। एक चैतन्यकी दृष्टिसे ज्ञान एक पर्याय है पर अपनी अवान्तर पर्यायोंकी दृष्टिसे वही अन्वयी होने से गुण है। ज्ञान ही प्रमाण है
प्रमाण शब्दकी 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' इस सर्वमान्य व्युत्पत्तिसे यही सूचित होता है कि जो प्रमाका साधकतम करण हो वह प्रमाण है। 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' यह व्युत्पत्तिमूलक लक्षण भी इसी अर्थको कहता है। विवाद तो यहाँ है कि प्रमाका करण क्या हो सकता है ? न्यायभाष्य में करणरूपसे सन्निकर्ष और ज्ञान दोनोंका स्पष्टतया निर्देश है। वैशेषिकपरम्परा में क्रमशः सन्निकर्ष स्वरूपालोचन और ज्ञानको प्रमाण कहा है। सांख्य इन्द्रियवृत्तिको करणके स्थानमें रखते हैं। प्रभाकर अनुभूतिको प्रमाण कहते हैं। बौद्धपरम्परामें यद्यपि अविसंवादिज्ञानको प्रमाण माना' है फिर भी वे करणके स्थानमें सारूप्य और योग्यताको भी स्थान देते हैं । सामान्यतया विचार यह प्रस्तुत है कि-ज्ञानको करण मानना या अचेतन इन्द्रिय और सन्निकर्षको भी।
जैनपरम्पराका स्पष्ट विचार है कि चूंकि प्रमा चेतन है और चेतनक्रियामें साधकतम करण कोई अचेतन नहीं हो सकता अतः अव्यवहित रूपसे प्रमाका जनक ज्ञान ही करण हो सकता है । इन्द्रियसन्निकर्ष इन्द्रियवृत्ति सारूप्य और योग्यता आदि ऐसे ज्ञानके जनक अवश्य होते हैं, जो ज्ञान प्रमाका साक्षात् साधकतम होता है। अतः ज्ञानसे व्यवहित होनेके कारण इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि प्रमाण नहीं हो सकते । प्रमिति या प्रमा अज्ञाननिवृत्तिरूप होती है। इस अज्ञाननिवृत्तिमें अज्ञानका विरोधी ज्ञान ही करण हो सकता है; जैसे कि अन्धकारकी निवृत्तिमें अन्धकारका विरोधी प्रकाश ही मुख्य करण होता है । इन्द्रिय सन्निकर्ष
(१) “यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमितिः, यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् ।"न्यायभा० १११॥३॥ (२) प्रश० भा०, व्यो० पृ० ५५३ ।
(३) “प्रमाणं वृत्तिरेव च"-योगवा० पृ० ३०। सांख्यप्र० भा० ११८७। (४) "अनुभूतिश्च प्रमाणम् ।"-शाबरभा० बृह० १०५।
"प्रमाणमविंसंवादिज्ञानम्"-प्र० वा. २॥१॥ ६) "विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते ।
स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥"-तस्वसं० श्लो० १३४४। (७) "सन्निकर्षादेरज्ञानस्य प्रामाण्यमनुपपन्नमर्थान्तरवत्"
-लघी० स्ववृ० १३ । सिद्धिवि० वृ० १॥३॥
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