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________________ विषयपरिचय: प्रमाणमीमांसा १ प्रमाणमीमांसा आत्मा और ज्ञान प्रमाण का विचार करने के पहिले प्रमाणभूत ज्ञान, उसके आधारभूत आत्मा और उनके परस्पर सम्बन्ध का विचार कर लेना आवश्यक है। भारतीय आस्तिक या आत्मवादी दर्शनों में आत्मा या चित्तकी जड़ पदार्थों से भिन्न सत्ता स्वीकार की गई है, साक्षात् या परम्परया ज्ञानको आत्माश्रित या चित्ताश्रित भी सभी आस्तिक दर्शनोंमें माना है । आस्तिक शब्दका प्रयोग यहाँ जड़ पदार्थोंसे आत्मा या चित्तकी पृथक् सत्ता मानने के अर्थ में किया जा रहा है। वेदान्त दर्शन में ब्रह्मको ही परमार्थ तत्त्व मानकर उसे चिद्रूप माना है । चैतन्य या चिति शक्ति ब्रह्मका निज रूप है। ज्ञान यानी ज्ञेयको जाननेवाला गुण ब्रह्मका निजरूप नहीं है । वह तो अन्तःकरण मनका धर्म है । जब ब्रह्म अपने शुद्ध रूपमें रहता है तब उसमें ज्ञेयाकारपरिणति रूप ज्ञान का प्रतिमास नहीं रहता । सांख्य' पुरुषको चैतन्य स्वरूप कहते हैं । ज्ञान पुरुषका धर्म नहीं है, किन्तु वह प्रकृतिका विकार है । जब तक पुरुषके साथ प्रकृतिका संसर्ग है तब तक पुरुष बुद्धिके द्वारा अध्यवसित अर्थका मात्र संचेतन करता है । जब पुरुष प्रकृतिसंसर्गका परित्याग कर मुक्त होता है तब उस स्वरूपैकप्रतिष्ठित पुरुषमें प्रकृतिका विकार ज्ञान नहीं रहता । जब तक उसका विकार महत्तत्त्व यानी बुद्धि या ज्ञान पुरुषके स्वच्छ चैतन्य रूपमें प्रतिफलित होते हैं तभी तक पुरुषको ज्ञेयका भान होता है । जब यह संसर्ग चरितार्थ हो जाता है तब केवल पुरुष शुद्ध चैतन्यमात्रमें प्रतिष्ठित हो जाता है' । नैयायिक वैशेषिक अदि ज्ञानको पृथक् पदार्थ मानकर भी उसका आधार नित्य आत्माको मानते हैं । ज्ञान आत्माका अयुतसिद्ध गुण है । जब आत्मा मुक्त हो जाता है तब वह ज्ञानादि गुणों से शून्य आत्ममात्र रह जाता है । उसमें आत्ममनः संयोगजन्य ज्ञानादि गुणोंकी उत्पत्ति नहीं होती । संसारावस्था में मनका संयोग है । अतः जितने आत्मप्रदेशों में मनका संयोग है उतने आत्मप्रदेशों में ज्ञानादि गुण उत्पन्न होते हैं । बौद्ध विज्ञानधारा मानते हैं। उनका मत है कि अनादिकालसे कारणकार्यरूप विज्ञानधारा चली आती है । वही आलयविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञान के क्रमसे ज्ञेयोंका प्रतिभास करती है। कोई स्थिर द्रव्य इस धाराका आधारभूत नहीं है । 'जब चित्तसन्तति निरास्रव अर्थात् अविद्या और तृष्णासे शून्य होती है। तब वह शुद्ध और निर्मल हो जाती है' यह एक दार्शनिक पक्ष चित्तनिर्वाण के विषय में पाया जाता है, पर चित्तनिर्वाणको जब स्वयं बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा था तब बहुत काल तक निर्वाणके विषय में प्रदीपनिर्वाणका पक्ष ही मुख्य रूपसे प्रचलित रहा है। उनका कहना है कि जिस प्रकार तेलके जल जानेपर प्रदीप बुझ जाता है, हम नही बता सकते कि वह किस दिशा विदिशा आकाश या पाताल कहाँ गया उसी तरह निर्वृत चित्त न किसी दिशामें जाता है न विदिशा में न आकाशमें न भूमिमें, वह तो क्लेशके (१) “अन्तःकरणवृत्यवच्छिन्नं चैतन्यं प्रमाणचैतन्यम् ।” – वेदान्तप० पृ० १७ । " चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम् " - योगभा० ११९ । "तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ” - योगसू० १।३ । " तदेवं नवानामात्मगुणानां निर्मूलोच्छेदोऽपवर्गः " -न्यायम० प्रमे० पृ० ७७ । ९५ " मुक्तिर्निर्मलता धियः " - तत्त्वसं० पृ० १८४ ॥ " दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित् नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्, Jain Education International दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् । दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित् नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्, कृती तथा निर्वृतिमभ्युपेतः क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥” - सौन्दरनन्द १६ । २८,२९ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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