SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थ : रचनाशैली खभ्यस्तश्च विवेचितश्च सततं सोऽनन्तवीर्योक्तितः, भूयान्मे नयनीतिदत्तमनसः तद्बोधसिद्धिप्रदः ॥" अर्थात् अकलङ्कदेवकी समस्त प्रमेयोंसे समृद्ध सरणि बड़े पुण्योदयसे प्राप्त हुई है, उसका मैंने अनन्तवीर्यकी उक्तियोंसे सैकड़ों बार अभ्यास किया और विवेचन किया आदि । अकलङ्कदेवके गूढ अर्थको ढूँड़नेके लिये आ० वादिराज तो पद-पदपर अनन्तवीर्यके वचनदीपोंके प्रकाशकी बाट जोहते हैं और कहते हैं कि उनके वचनदीप ही उस दिशामें सतत प्रकाश देते हैं। एक तो तर्कका क्षेत्र वैसे ही कर्कश और फिर अकलङ्कके दुरूह जटिल ग्रन्थकी टीका करना । इन कठिनाइयोंके रहते हुए भी अनन्तवीर्यने अपनी टीकाको पर्याप्त सरल करनेका प्रयास किया है। १८००० श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका रचनेपर भी वे उसके पार पानेका दावा नहीं करते । वे अकलङ्कके मनोगत भावोंको स्पष्ट करनेके लिये उनके सूत्रको पकड़कर पूर्वपक्षीय ग्रन्थोंके सैकड़ों अवतरण देकर विषय को खूब विशद और बुद्धिगम्य बनाते हैं। यह उनका सदा ध्यान रहता है कि खण्डनके प्रसङ्गमें कोई बात 'अमूल'-बिना प्रमाण की न लिखी जाय और इसीलिये टीकामें ग्रन्थान्तरीय अवतरणोंकी भरमार है । वेद उपनिषद्से लेकर सभी दार्शनिक ग्रन्थों के चुने हुए अवतरण पाठककी बुद्धिको पर्याप्त विश्राम देते हैं, उसे ऊबने नहीं देते । फिर लोकोक्तियाँ, न्याय, विशेष उदाहरण और हास-परिहाससे परिपूर्ण व्यङ्गयोक्तियाँ विषयकी जटिलताको खूब सुबोध और सरल कर देती हैं। ___ आलोचना और खण्डन करनेमें हास्य और व्यंग्यका अवसर तो पूरा-पूरा रहता ही है और यदि उस समय कोई सटीक बैठनेवाली लोकोक्ति कही जाय तो जिसका खण्डन हो रहा है वह भी मन मसोसकर भी कहनेवालेकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। ऐसे स्थल अनन्तवीर्यकी शैलीमें खूब हैं। उनकी लोकोक्तियाँ न्याय और विशिष्ट मुहावरोंके कुछ नमूने देखिए"अधिकार्थिन्याः पतितं तदपि च यत्पिञ्जने लग्नम् -आधी छोड़ एकको धावे ऐसा डूबे पार न पावे घोटकारूढोऽपि विस्मृतघोटको जातः ___-काँखमें लड़का गाँवमें टेर आम्रान् पृष्टः कोविदारानाचष्टे -पूँछे खेतकी कहे खलिहानकी इतः सरः इतः पाशः -इधर कुँआँ उधर खाई यादृशो यक्षः तादृशो बलिः” __-जैसेको तैसा इत्यादि । अर्धवैशस न्याय, याचतिकमण्डन न्याय, काकाक्षगोलक न्याय, तीरादर्शिशकुनि न्याय, वीचीतरङ्ग न्याय आदि न्यायों के प्रयोगसे विषय तो स्पष्ट हो ही जाता है साथ ही भाषाका चमत्कार पाठकको प्रमदित कर देता है। इसी तरह "अर्के कटुकत्वदर्शनात् गुडेऽपि योजयति । गण्डूपदभयात् अजगरमुखप्रवेशमनुसरति । न चाण्डाल्या दर्शनमिच्छामि स्पर्श त्विच्छामि । (१) न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ६०५ । (२) "व्यञ्जयत्यलमनन्तवीर्यवाग्दीपवर्तिरनिशं पदे पदे"-न्यायवि. वि. प्र. पृ० ।। (३) शेषके लिये देखो परिशिष्ट १० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy