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________________ प्रस्तावमा १२. निक्षेपसिद्धिमें-निक्षेपका लक्षण, नाम स्थापना आदि भेद, भाव पर्यायार्थिकका तथा शेष द्रव्यार्थिकके निक्षेप तथा अनेकान्तमें ही निक्षेपकी संभावना आदि विषयोंका विवेचन है । - यह मूल सिद्धिविनिश्चयका विषय परिचय है। सिद्धिविनिश्चय टीकामें इन्हींका विस्तार तथा आनुषङ्गिक विषयोंका और भी निरूपण है । रचना शैली यह पहिले लिखा जा चुका है कि अकलङ्क आगमिक-दार्शनिक होनेके बाद तार्किक-दार्शनिक बने थे। उनके ग्रन्थों के वर्णनमें उनकी शैलीका एक आभास तो करा दिया गया है । यहाँ सिद्धिविनिश्चयकी शैलीके सम्बन्धमें ही कुछ विशेष वक्तव्य है। अकलङ्कके तार्किक प्रकरण अतिसंक्षिप्त गूढार्थ जटिल और बह्वर्थ हैं । सिद्धिविनिश्चयके सम्बन्धमें तो अनन्तवीर्य प्रकारान्तरसे यह कहते ही हैं कि अनन्त सामर्थ्य रखकर भी अकलङ्कके वचनोंका मर्म समझमें नहीं आता वह बड़े आश्चर्यकी बात है। उन्होंने इसे 'सूक्तसद्रत्नाकर' कहा है। अकलङ्क वचोम्भोधिकी गहराई मापनेमें प्रभाचन्द्र और वादिराज जैसे प्रकाण्ड पण्डित भी अपनेको असमर्थ बताते हैं। सिद्धिविनिश्चयमें उनके प्रमुख लक्ष्य हैं धर्मकीर्ति और उनके टीकाकार । क्योंकि ग्रन्थका एक तिहाई भाग इन्हींकी आलोचनासे पूर्ण है, फिर चार्वाक न्यायवैशेषिक मीमांसक सांख्ययोग आदि सभी दर्शन उनकी आलोचनाके क्षेत्रमें हैं। उनकी भाषा व्यंग्योंसे पूर्ण है और वह 'अनात्मज्ञता, अन्तर्गडु, अन्धयष्टिकल्प, अमलालीढ, अयोनिशो मनस्कार, अश्लीलमेवाकुलम्, आन्ध्यविजृम्भण, कुशकाशावलम्बन, कोशपान, तदद्वेषी तत्कारी, धार्थ्य, प्रशस्तपण्डितवेदनीय, मस्तके शृङ्गम्, राजपथीकृत, शिलाप्लव और शौद्धोदनिशिष्यक आदि प्रयोगोंसे तथा म्लेच्छादि व्यवहार और मूषिकालर्क विषविकार आदि उदाहरणोंसे पर्याप्त समृद्ध और ओजःपूर्ण बन गई है । अकलङ्कका षड्दर्शनोंका गम्भीर अध्ययन तथा बौद्ध-शास्त्रोंका आत्मसात्करण भी उनके प्रकरणों की जटिलताको बढ़ा देते हैं । वे चाहते हैं कि कमसे कम शब्दोंमें अधिक-से-अधिक सूक्ष्म और बहु पदार्थ ही नहीं बहुविध पदार्थ लिखा जाय । उनकी यह सूत्रशैली बड़े-बड़े प्रकाण्डपण्डितोंको अपनी बुद्धिका माप दण्ड हो रही है। अकलङ्कदेव धर्मकीर्तिके ग्रन्थोंको लक्ष्य कर अनेकों पूर्व पक्ष उनके प्रमाणवार्तिक आदि ग्रन्थोंसे शब्दशः लेते हैं साथ ही लगे हाथ वहीं सांख्य और न्यायवैशेषिककी आलोचना करते जाते हैं । जहाँ भी अवसर आया सौत्रान्तिक और विज्ञान-शून्यवादियोंपर पूरा प्रहार किया है । कुमारिलकी सर्वज्ञताविरोधिनी युक्तियाँ उनके मीमांसाश्लोकवार्तिकको सामने रखकर आलोचित हुई हैं। टीकाकी शैली अनन्तवीर्यने टीकामें मूलके अभिप्रायको विशद और पल्लवित करनेके हेतु अपनी सारी शक्ति लगाकर अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। आ० प्रभाचन्द्र अकलङ्कदेवकी सरणिको प्राप्त करनेके लिए इन्हींकी युक्तियों और उक्तियोंका अभ्यास करते हैं तथा उनका विवेचन करनेकी बात बड़ी श्रद्धासे लिखते हैं कि "त्रैलोक्योदरवर्तिवस्तुविषयज्ञानप्रभावोदयः, दुष्प्रापोऽप्यकलङ्कदेवसरणिः प्राप्तोऽत्र पुण्योदयात् । (१) पृ० । (२) "अकलङ्कवचोऽम्भोधेः सूक्तरतानि यद्यपि । गृह्यन्ते बहुभिः स्वैरं सदनाकर एव सः ॥"-पृ० ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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