________________
ग्रन्थ : बाह्यस्वरूप
९१ निरास, स्वसंवेदनप्रत्यक्ष के निर्विकल्पकत्वका खण्डन; अविसंवादकी बहुलतासे प्रामाण्यव्यवस्था तथा मति स्मृति आदि शब्दयोजना के बिना भी होते हैं इत्यादिका निरूपण है ।
२. सविकल्पसिद्धि में अवग्रहादिज्ञानोंका वर्णन, मानस प्रत्यक्षकी आलोचना, निर्विकल्पक से सविकल्पकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, अवग्रहादिमें पूर्व पूर्व की प्रमाणता और उत्तरोत्तरमें फलरूपता और बौद्धमतमें सन्तानान्तरकी प्रतिपत्ति संभव नहीं, आदि विषयोंका विवेचन है ।
३. प्रमाणान्तर सिद्धि में स्मरणकी प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, तर्ककी प्रमाणताका समर्थन, क्षणिक पक्षमें अर्थक्रियाका अभाव, उत्पादव्ययस्थित्यात्मक तत्त्वका समर्थन, विनाश भावान्तरोत्पाद रूप है, अनाद्यनन्त द्रव्यकी सत्ता तथा द्रव्य और पर्यायका भेदाभेद आदिका विचार है ।
४. जीवसिद्धि में - ज्ञाताको ज्ञानावरणके उदयसे मिथ्याज्ञान क्षणिकचित्त में कार्यकारणभाव सन्तान आदिकी अनुपपत्ति, जीव और कर्म चेतन और अचेतन होकर भी बन्धके प्रति एक हैं, कर्मास्रव के कारण, प्रज्ञासत् और प्रज्ञप्तिसत्के भेदसे दो प्रकारका नास्तिक्य, तत्त्वोपप्लववादकी मीमांसा, भूतचैतन्यवाद निराकरण, नैयायिकाभिमत आत्मस्वरूपका निराकरण, सांख्याभिमत तत्त्वसमीक्षा, अमूर्त चेतनको भी कर्मबन्ध, और ज्ञानादिगुणों का जीवसे कथाञ्चिद् भेद आदि विषयोंकी चरचा है ।
५. जल्पसिद्धि में - जल्पका लक्षण, उसकी चतुरङ्गता, जल्पका फल मार्गप्रभावना, शब्दकी अर्थवाचकता, शब्दमात्र विवक्षाके सूचक नहीं, असाधनाङ्गवचनादि निग्रहस्थानोंकी आलोचना और जयपराजय - व्यवस्था, आदि का निरूपण है ।
६. हेतुलक्षण सिद्धिमें - हेतुका अन्यथानुपपत्ति लक्षण, तादात्म्य तदुत्पत्तिसे ही अविनाभावकी व्याप्ति नहीं, हेतुके भेद, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुका समर्थन, सत्त्वादि हेतुओंका अनेकान्तमें ही संभवत्व, सहोपलम्भनियमसे ज्ञानाद्वैतकी सिद्धि संभव नहीं और अदृश्यानुपलब्धिसे भी अभाव की सिद्धि आदि विषयों का निरूपण है ।
७. शास्त्रसिद्धि में - श्रुतका श्रेयोमार्गसाधकत्व, शब्दका अर्थवाचकत्व, स्वापादिदशामें भी जीवकी चेतनता, भेदैकान्तमें कारक ज्ञापकस्थितिका अभाव, कर्मोदयसे जीवमें भ्रान्तिकी उत्पत्ति, ईश्वरवादका खण्डन, नैयायिकके मोक्षस्वरूपकी आलोचना, पुरुष में ज्ञानातिशयकी संभावना, स्याद्वादश्रुतकी ही अविसंवादिता, नित्य वेद में अर्थप्रतिपादकत्वका अभाव और वेदकी अपौरुप्रयताका निराकरण आदि विषयोंकी चरचा है ।
८. सर्वज्ञसिद्धि में - अत्यन्तपरोक्षार्थका भी ज्ञान संभव है, वक्तृत्वादि हेतु सर्वज्ञत्व के बाधक नहीं, निर्णीतासंभवाधकत्व हेतुसे सर्वज्ञताकी सिद्धि, अतिशयवत्त्व हेतुसे सर्वज्ञताका साधन, अतीन्द्रियज्ञानकी संभावना, सांख्यमतमें सर्वज्ञताका असंभव और ज्ञानावरणके अभाव में सर्वज्ञत्व इत्यादि विषयोंका निरूपण है ।
९. शब्दसिद्धि में - शब्दकी पुद्रलपर्यायता, शब्दमें छाया और आतपकी तरह पुद्गलस्कन्धरूपता, शब्दका अर्थसे वाच्यवाच्यक सम्बन्ध, शब्दकी स्वलक्षण- अर्थविषयता, सर्व मृषात्वकी सिद्धि के लिये भी शब्दका अर्थवाचकत्व आवश्यक, यदि स्वलक्षण अवाच्य है तो उसमें अदृश्यत्वका प्रसङ्ग होगा, शब्दोंको वक्त्रभिप्रायका वाचक मानने पर सत्यानृतव्यवस्था न हो सकेगी, एवकारादि प्रयोग विचार और स्फोटवाद निरास आदिका वर्णन है ।
१०. अर्थनयसिद्धिमें - ज्ञाताका अभिप्राय नय है, नय प्रमाणात्मक भी है, दो मूलनय, निरपेक्ष नय मिथ्या, नैगम नय, सांख्य नैगमाभास, संग्रहनय, संग्रहाभास, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय आदिका विवेचन है ।
शब्दनित्यत्वका निरास,
११. शब्दनयसिद्धिमें - शब्दस्वरूपनिरूपण, स्फोटवादका खण्डन, शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय आदिका वर्णन है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org