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३ ग्रन्थ
[बाह्य स्वरूप] सिद्धिविनिश्चयकी अकलङ्क-कर्तृकता
टीकाकार अनन्तवीर्यने प्रथम मङ्गलश्लोकमें जिनेन्द्र का अकलङ्क-विशेषण दिया है और उसके अनन्तर सिद्धिविनिश्चयकी टीका करनेकी प्रतीज्ञा की है। इसके आगेके श्लोकोंमें भी अकलङ्कके वचनोंकी ही प्रशंसा की गई है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में सिद्धिवि०का 'शब्दः पुद्गलपर्यायः'श्लोक अकलङ्कके नामके साथ उद्धृत किया है । वादिराज सूरिने न्यायविनिश्चयविवरण में 'देव' (अकलङ्कदेव)के साथ सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख इस प्रकार किया है
"एतदेव स्वयं देवैरुक्तं सिद्धिविनिश्चये । प्रत्यासत्त्या ययैक्यं स्यात्..."
"स्याद्वादरत्नाकरमें वादिदेवसूरि तो स्पष्टतः अकलङ्क और सिद्धिविनिश्चय दोनोंका उल्लेख करते हैं-"यदाह अकलडः सिद्धिविनिश्चये वर्णसमदायः पदमिति..."
इन उल्लेखोंसे निश्चित हो जाता है कि सिद्धिविनिश्चय मूलश्लोक तथा उसकी वृत्ति दोनों अकलङ्ककर्तृक हैं; क्योंकि गद्य और पद्य दोनों अकलङ्कदेवके नामके साथ उद्धृत हैं। नामका इतिहास
जैन परम्परामें ग्रन्थका विनिश्चयान्त नाम रखनेकी परम्परा बहुत पुरानी है । तिलोयपण्णत्ति ( ई० ५ वी)में लोकविनिश्चय ग्रन्थका उल्लेख बार-बार आता है। इस परसे संभावनाकी जाती है कि अकलङ्कदेवने अपने न्यायविनिश्चय और सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थोंका नामकरण इस परसे किया होगा। यह सही है । साथ ही, यापनीयाचार्य आर्य शिवस्वामीके सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख किया जा चुका है, यह भी निश्चयतः अकलङ्क से पहिले का है। इस तरह अपनी परम्पराओंके रहते हए भी जिसने अकलङ्कको यह नाम रखने और ग्रन्थ बनानेकी विशेष प्रेरणा दी होगी वह है धर्मकीर्तिका प्रमाणविनिश्चय ग्रन्थ । धर्मकीर्ति ऐसे युगनिर्माता बौद्ध आचार्य थे कि इनके ग्रन्थोंके प्रकाश में आते ही लोग इनके पुराने आचार्योंको भूलने लगे थे और अकलङ्कने इन्हींके विशेष समालोचन तथा इन्हींके नैरात्म्यवादसे रक्षा करनेके निमित्त 'अकलङ्क न्याय' सम्बन्धी ग्रन्थोंकी रचना की ओर प्रवृत्ति की थी अतः तात्कालिक आवश्यकताके विचारसे लगता है कि विनिश्चयान्त नाम रखनेमें धर्मकीर्तिका प्रमाणविनिश्चय विशेष कारण रहा हो । विषय विभाजन
सिद्धिविनिश्चयमें १२ प्रस्ताव हैं। इनमें प्रमाण नय और निक्षेप का विवेचन है ।
१. प्रत्यक्षसिद्धिमें-प्रमाण सामान्यका लक्षण, प्रमाणका फल, बाह्यार्थकी सिद्धि, व्यवसायात्मक विकल्पकी प्रमाणता और विशदता, चित्रज्ञानकी तरह विचित्र बाह्य पदार्थोंकी सिद्धि, निर्विकल्पक प्रत्यक्षका
(१) पृ० ४२४ । (२) ९।२। (३)प्र० भाग पृ० १६८ । (४) पृ. ६४१।
(५) तिलोयप० ४।१८६६, १९७५, १९८२, २०२८, ५।६९, १२९, १६७, ७।२०३; 4।२७०, ३८५, ९९ आदि। .
(6) तिलोयप० द्वि. प्रस्ता० पृ० १२। () पृ० ५३ ।
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