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________________ ग्रन्थकार अनन्तवीर्य : उनके ग्रन्थ ई० ९८०-१०६५ सिद्ध किया जाचुका है। अतः वह मूलप्रमाण रविभद्र शिष्य अनन्तवीर्यकी समयावधि बाँधनेमें असमर्थ है। डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण'ने अनन्तवीर्यकी न्यायविनिश्चयवृत्तिका उल्लेख करके प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यने जिस शान्तिषेणके लिये प्रमेयरत्नमाला लिखी थीं, उसका सम्बन्ध शान्तिसूरिसे बैठाया है। यद्यपि उनकी इन दोनों भ्रान्त धारणाओंकी आलोचना डॉ० उपाध्येने भलीभाँति की है। किन्तु डॉ. विद्याभूषणने प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यका समय जो ई० ११ वी सदी सूचित किया है, उसका समर्थन अन्य प्रमाणोंसे हो जाता है। इस तरह विप्रतिपत्तियोंका निराकरण होकर अनन्तवीर्यका समय ई० ९५०-९९० सिद्ध होता है। . अनन्तवीर्यके ग्रन्थअनन्तवीर्य आचार्यके प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चय टीकाके सिवाय जिस एक और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका पत। चलता है वह है प्रमाणसंग्रहभाष्य या प्रमाणसंग्रहालङ्कार । वे प्रस्तुतटीकामें जिस विषयकी विस्तृत चरचा नहीं करना चाहते या उसके विशेष समर्थनके लिये किसी ग्रन्थके देखनेकी ओर इशारा करना चाहते हैं वहाँ वे प्रमाण संग्रहभाष्य या प्रमाणसंग्रहालंकारका निर्देश कर देते हैं। 'चर्चितम्'व्याख्यातः' 'उक्तम्' आदि भूतकालिक पदोंसे सूचित होता है कि प्रमाणसंग्रहालङ्कार या प्रमाणसंग्रहभाध्यकी रचना प्रस्तुत टीकासे पहिले हो चुकी है । अकलङ्कदेवका प्रमाणसंग्रहग्रन्थ 'अकलङ्क ग्रन्थत्रय' में मूल प्रकाशित हो चुका है। वह इतना दुरूह और गंभीर है कि उसका यथार्थ रहस्य जानना अत्यन्त कठिन हो रहा है। स्थाद्वादरत्नाकर और सर्वदर्शनसंग्रहमें अनन्तवीर्यके नामसे जो वाक्य और श्लोक उद्धृत मिलते हैं वे संभवतः प्रमाणसंग्रहभाष्यके ही हों। . ___ इस तरह आ० अनन्तवीर्य एक श्रद्धालु तार्किक बहुश्रुत विद्वान् और यशस्वी टीकाकार थे। उनकी यह अनुपम कृति अकलङ्कवाङमयका आलोक बनकर आज भी अज्ञान तमस्तोमका भेदन कर रही है। (१) न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भाग प्रस्तावना पृ० ४४-५८ । (२) हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लॉजिक पृ० १९८ । (३) 'जैनदर्शन' वर्ष ४ अंक ९। (४) देखो पृ० ८० । (५) "केवलमिन्द्रियमवशिष्यते। तदपि न प्रमाणं विचेतनत्वात् घटादिवदिति चर्चितं प्रमाणसंग्रहभाष्ये"-सिद्धिवि० टीका पृ० ८। "शेषमत्र प्रमाणसंग्रहभाष्यात् प्रत्येयम्"-वही पृ० १३० । "महेश्वरस्य सकलोपकरणादिज्ञानं प्रमाणसंग्रहभाष्ये निरस्तम्"-वही पृ० ४८३ । . "दोषो रागादिः व्याख्यातः प्रमाणसंग्रहभाष्ये"-वही पृ० ५४१ । "एतदुक्तं भवति-यथा दृश्यप्राप्ययोर्भेदः तथा दृश्यस्य दर्शनस्य च प्रत्यवयवं भेदान्न कस्यचिद् दर्शनमित्युक्तं प्रमाणसंग्रहालङ्कारे।"-वही पृ० १०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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