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________________ प्रस्तावना "धर्मकीर्ति और भामहके सम्बन्धमें लिखे गये अपने लेखमें डॉक्टर के० बी० पाठकने माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखके टीकाकार अनन्तवीर्यका उल्लेख किया है और बतलाया है कि अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयके ऊपर भी उन्होंने एक टीका बनाई है। अन्तमें डॉ० पाठकने नतीजा निकाला है कि निम्नलिखित कारणोंसे अनन्तवीर्य ईसाकी १० वीं शताब्दीके अन्तमें हुए हैं १. अपने पार्श्वनाथ चरितमें वादिराजने उनका उल्लेख किया है। यह चरित शकस० ९४७ (ई० १०२५) में समाप्त हुआ था । २. महापुराणमें मल्लिषेणने उनका स्मरण किया है। इसका रचनाकाल शकसं ९६९ (ई० १०४७) है। ३. शकसं ० ९९९ (ई० १०७७) के .नागर शिलालेखमें उनका उल्लेख है।' विद्वान् लेखकके साथ उचित मतभेद रखते हुए हम यह कहनेके लिए बाध्य हैं कि उनके कथनमें थोथा अयथार्थवाद है, उन्होंने सत्य बातोंको गोरखधन्देमें डाल दिया है और समयके सम्बन्धमें उनका नतीजा तर्कशून्यताका ताजा उदाहरण है।" इसकी आलोचना करके डॉ० उपाध्येने निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले हैं१. अनन्तवीर्यकी कोई टीका न्यायविनिश्चय पर नहीं है । २. अकलंकके टीकाकार अनन्तवीर्य प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यसे भिन्न है। ३. अकलंकके सिद्धि वि० के टीकाकार रविभद्र शिष्य अनन्तवीर्यका समय ईसाकी ८ वीं सदीका पूर्वार्ध है। डॉ० उपाध्येका यह शंका प्रकट करना सही है कि न्यायविनिश्चय पर अनन्तवीर्यकी टीकाकी कोई प्रति उपलब्ध नहीं है और न कहीं उसका उल्लेख ही है। रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यसे निश्चयतः भिन्न हैं यह उन्होंने अच्छी तरह सिद्ध कर दिया है। परन्तु उन्होंने रविभद्र शिष्य अनन्तवीर्यका समय जो ई० ८ वीं सदीका पूर्वभाग अनुमानित किया है वह प्राप्त प्रमाणोंके प्रकाशमें ठीक नहीं जंचता । जैसा कि पहिले सिद्ध किया जा चुका है कि-अकलंकदेव ई० ७२०-७८० यानी ई० ८ वीं सदीके उत्तरार्धके विद्वान् हैं तो उनके टीकाकारका ई० ८ वीं के पूर्वार्धमें होना संभव नहीं है। रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्यका समय सप्रमाण ई. ९५० से ९९० तक सिद्ध किया जा चुका है, जो कि डॉ० पाठकके द्वारा निकाले गये निष्कर्ष के अनुसार ही है । उनका ई० ८वींके पूर्वार्धमें होना कथमपि संभव नहीं है। मैं जिन वृद्ध अनन्तवीर्यका उल्लेख कर आया हूँ उनके समयके सम्बन्धमें अभी इतना ही कहा जा सकता है कि वे ९ वीं सदी या १० वींके पूर्वार्धमें कभी हुए हैं । किन्तु रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य १० वीं सदीके अन्तिमभागसे पहिले नहीं हो सकते । प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य ई० की ११ वीं सदीके विद्वान् हैं यह भी निश्चित है। डॉ० उपाध्येने रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्यके समयको ई० ८ वीं सदी के निर्णय करने में मुख्य प्रमाण आदिपुराणकार जिनसेन (ई० ८३८) के द्वारा चन्द्रोदयकार प्रभाचन्द्रका स्मरण किया जाना और प्रभाचन्द्र के द्वारा न्यायकुमुदचन्द्रमें अनन्तवीर्यका अतिसन्मानसे उल्लिखित होना उपस्थित किया है। यहाँ डॉ. उपाध्ये भी दो ग्रन्थकारों और दो ग्रन्थोंके सदृश नामके कारण भ्रममें पड़ गये हैं। न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना में श्री पं० कैलाशचन्द्रजीने यह सप्रमाण सिद्ध किया है कि जिनसेन द्वारा स्मृत प्रभाचन्द्र और चन्द्रोदय, न्यायकुमुदचन्द्र और उसके कर्ता धारानिवासी प्रभाचन्द्रसे जुदे हैं ।न्यायकुमुचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्रका समय सप्रमाण न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीयभागकी प्रस्तावनामें (१) 'जैनदर्शन' वर्ष ४ अंक ९। (२) पृ० ५५ । (३) पृ० ८७। (४) पृ० ७७ । (५) पृ० ८०। (६) पृ. ११७ । (७) इस निष्कर्षसे सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान् पं० नाथूरामजी प्रेमी भी सहमत हैं । देखोन्यायकुमुदचन्द्र द्वितीयभागका प्रकाशकीय वक्तव्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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