________________
ग्रन्थकार अनन्तवीर्य : समयनिर्णय ही होगा । गुणभद्रने अपना उत्तरपुराण शक सं० ८२० ई०८९८ में समाप्त किया था और उनके शिष्य लोकसेनने तभी उसकी पूजा कराई थी। इस समय लोकसेन विदितसकलशास्त्र थे। प्रभाचन्द्रकृत आत्मानुशासन तिलकके उल्लेखानुसार गुणभद्राचार्यने लोकसेनको विषयव्यामुग्धबुद्धि देख उनके प्रतिबोधनार्थ आत्मानुशासन ग्रन्थ बनाया था । तो इसकी रचना सन् ८८० के आसपास कभी हुई होगी; क्योंकि लोकसेन गुणभद्रके प्रिय शिष्योंमें थे। प्रभाचन्द्रका 'बृहद्धर्मभ्रातुः'-'महान् धर्मभाई' विशेषण गुणभद्रका अपने शिष्यके प्रति रहनेवाले अतिशय स्नेह और आदरका सूचक है। अतः ई० ८८० के आसपास बने हुए आत्मानुशासनके श्लोकका पाठ परिवर्तन ई० ८८१ से ९५० के बीच कभी हुआ है । इससे भी अनन्तवीर्यकी तिथिके सम्बन्धमें जो निष्कर्ष निकाला गया है, उसमें कोई अन्तर नहीं आता । वे ई० १०वीं सदीके विद्वान् ही सिद्ध होते हैं।
उपर्युक्त विवेचन के आधारसे हम अनन्तवीर्यका समय निम्नलिखित युक्तियोंसे ई० ९५० से ९९० तक रख सकते हैं
१. अकलङ्कदेवका समय ई० ७२० से ७८० सिद्ध किया जा चुका है । अतः उनके टीकाकार रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्यका समय ई० ८वीं सदीके बाद होना चाहिए ।
२. विद्यानन्द(ई० ८४०)का अवतरण लेनेवाले तथा उनके मतका उल्लेख करनेवाले अनन्तवीर्यका समय ई० ८४० के बाद होना चाहिए।
३. विद्यानन्दके उत्तरवर्ती अनन्तकीर्तिके स्वतःप्रामाण्यभङ्गका उल्लेख करनेवाले अनन्तवीर्यका समय ई० ९वींका उत्तरार्ध या १०वींका पूर्व भाग होना चाहिए ।
४. आचार्य गुणभद्रके आत्मानुशासनके श्लोकके सोमदेवसूरिकृत परिवर्तित रूपको उद्धृत करनेवाले अनन्तवीर्यका समय सोमदेवके बाद अर्थात् ई० ९६० के आसपास होना चाहिए ।
५. हुम्मच के शिलालेखमें अनन्तवीर्यको वादिराजके दादागुरु श्रीपाल विद्यका सधर्मा लिखा है । वादिराज (ई० १०२५) से यदि उनके दादागुरु ५० वर्ष पहिले मान लिये जायँ तो अनन्तवीर्यकी स्थिति ई० ९७५ में आती है।
इन हेतुओंसे अनन्तवीर्यकी समयावधि ई० ९५० से ९९० तक निश्चित होती है।
इस समयका समर्थन शान्तिसूरि (ई० ९९३-१०४७) और वादिराज(ई० १०२५) के द्वारा किये गये अनन्तवीर्यके उल्लेखोंसे हो जाता है और प्रभाचन्द्र इनकी उक्तियों को सुन सकते हैं ।
विप्रतिपत्तियोंकी आलोचना___ डॉ० ए० एन० उपाध्येने अनन्तवीर्यके सम्बन्धमें स्व० डॉ० पाठकके मत की आलोचना करते हुए डॉ० पाठकका मत इस प्रकार उपस्थित किया है
(१) श्रीमान् प्रेमीजी शक ८२० को पूजाका काल मानते हैं और यह सूचित करते हैं कि उत्तरपुराणकी समाप्तिका काल लिखा ही नहीं गया (जैन सा० इ० पृ० १४१) पर इससे निष्कर्षमें कोई अन्तर नहीं आता । डॉ० हीरालालजी और डॉ० उपाध्ये शक ८२० को ग्रन्थ समाप्ति और पूजा दोनोंका काल मानते हैं (उत्तरपुराण प्रास्ता० पृ. ४) जो उचित है। क्योंकि ग्रन्थ समाप्त होते ही उसकी पूजा की गई होगी।
(२) बृहद्धर्मभ्रातुः लोकसेनस्य विषयव्यामुग्धबुद्धः सम्बोधनव्याजेन सर्वसत्त्वोपकारकं सन्मार्गमुपदर्शयितुकामो गुणभद्रदेवः..." ।-न्याय कुमु० द्वि० प्रस्ता० पृ० ५१
(३) पृ० ७६ ।
(४) एनल्स भा० ओ० रि० इ० पूना भाग १३, २, पृ० १६१-१७० । अनुवाद 'जैनदर्शन' वर्ष ४ अंक ९।
(५) वही भाग ११, ४. पृ० ३७३। (६) जैनदर्शन' वर्ष ४ अंक १ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org