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________________ • ग्रन्थकार अनन्तवीर्य : समयनिर्णय हमारा यह निश्चित मत है कि बृहत्सर्वज्ञ सिद्धि का ही अनुसरण न्यायकुमुदचन्द्रमें किया गया है; क्योंकि प्रभाचन्द्र के समकालीन शान्तिसूरि ने अनन्तकीर्तिका उल्लेख किया है। सम्मतितर्कके टीकाकार अभयदेवसूरि धाराधिपति मुंजके समकालीन थे। इनका समय श्रीमान् पं० सुखलालजीने विक्रमकी दसवीं सदीका उत्तरार्ध और ग्यारहवींका पूर्वार्ध निश्चित किया है । सन्मति० टीकाके सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण (पृ० ६५) में अभयदेवसूरिने भी उसी नष्टमुष्टिचिन्ता लाभालाभ सुखासुख जीवितमरण ग्रहोपरागमन्त्रौषधिशक्त्यादिके अविसंवादि अलिङ्ग अनुपदेश और अनन्वयव्यतिरेक पूर्वक उपदेशकी अन्यथानुपपत्तिवाले हेतुका प्रयोग किया है जो वृहत्सर्वज्ञसिद्धि में है । इस्ना ही नहीं ज्योतिःशास्त्रके “नक्षत्रग्रहपञ्जरमहर्निशं लोककर्मविक्षिप्तम् । भ्रमति शुभाशुभमखिलं प्रकाशयत्पूर्वजन्मकृतम् ॥" इस श्लोकको भी, जो कि बृहत्सर्वज्ञसिद्धि (पृ० १७६) में एक अन्य श्लोकके साथ उद्धृत है, उद्धत किया है । इन प्रकरणोंकी तुलनासे स्पष्ट है कि-एकने दूसरेके ग्रन्थोंको देखा है। शान्तिसूरि के उल्लेखसे सिद्ध होता है कि अनन्तकीर्तिका समय ई० ९९० से पूर्व है । तब यही अधिक संभव है कि-बृहत्सर्वशसिद्धिके विचार सन्मतितर्कमें पहुँचे हों। आचार्य वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरितमें एक अनन्तकीर्तिका स्मरण इस प्रकार किया है "आत्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धिं निबध्नता। अनन्तकीर्तिना मुक्तिरात्रिमार्गेव लक्ष्यते ॥ २४॥" इससे ज्ञात होता है कि इन्होंने 'जीवसिद्धि' ग्रन्थ या प्रकरण भी लिखा है । श्रीमान् पं० नाथूरामजी प्रेमीने सम्भावना की है कि-जिनसेन द्वारा उल्लिखित समन्तभद्रकी जीवसिद्धि पर अनन्तकीर्तिने टीका लिखी होगी। न्यायविनिश्चयविवरणके सर्वशसिद्धि प्रकरणमें आचार्य . वादिराज जिस-"तच्चेदम्-यो यत्रानुपदेशालिङ्गानन्वयव्यतिरेकाविसंवादिवचनोपक्रमः स तत्साक्षात्कारी यथा सुरभिचन्दनगन्धादौ अस्मदादिः, तथाविधवचनोपक्रमश्च कश्चित् ग्रहनक्षत्रादिगतिविकल्पे मन्त्रतन्त्रादिशक्तिविशेषे च तदागमप्रणेता पुरुष इति ।" हेतुका प्रयोग कर रहे हैं वह अनन्तकीर्तिकृत लघुसर्वशसिद्धि' (पृ० १०७) का प्रमुख हेतु है, और वह उन्हींके शब्दों में प्रायः उपस्थित किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि वदिराज लघुसर्वज्ञसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्तिसे परिचित थे, जिनका कि उल्लेख वे पार्श्वनाथचरितमें कर रहे हैं। (१) तुलना-"किन्वतज्ज्ञो जनो दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् संसारान्तःपति. तेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते । हिताहितविवेकज्ञस्तु तादात्विकसुखसाधनं स्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहात् आत्मसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते । क्था पथ्यापथ्यविवेकमजानन्नातुरः तादात्विकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते । पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु आतुरस्तादात्विकसुखसाधनं दध्यादिक परित्यज्य पेयादावारोग्यसाधने प्रवर्तते । तथा च कस्यचिद्विदुषः सुभाषितम्-तदात्वसुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते । हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः ॥"-बृहत्सर्वज्ञसिद्धि पृ० १८१॥ "किन्तु अज्ञो जनः दुःखानुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते। हिताहितविवेकज्ञस्तु"यथा पथ्यापथ्यविवेकमजानन्नातुरः"दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु तत्परित्यज्य पेयादावारोग्यसाधने प्रवर्तते । उक्तञ्च-तदात्वसुखसंज्ञेषु..."-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ८४२। (२) सम्मतितर्क गुजराती प्रस्तावना पृ० ८३ । (३) जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४०४। (१) द्वि० भाग पृ• २९७ । (५) “यो यद्विषयानुपदेशालिङ्गानन्वयव्यतिरेकाविसंवादिवचनानुक्रमकर्ता स तत्साक्षात्कारी..." Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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