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________________ प्रस्तावना "समारोपच्छिदूहोऽत्र मानं मतिनिबन्धनः।" __ -त० श्लो० १।१३।९९ । लगता यही है कि इस श्लोक के अंश को ही अनन्तवीर्यने प्रमाणरूपसे उद्धत किया है । प्रस्तुत टीका (पृ०६) में आदिवाक्य की चर्चा के प्रसङ्गमें 'श्रद्धाकुतूहलोत्पाद' को आदिवाक्यका प्रयोजन माननेवाले किसी 'स्वयूथ्य' का मत उद्धृत किया गया है। फिर इस स्वयूथ्यका खण्डन करनेवाले किसी अन्य आचार्यका मत भी दिया गया है।' आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थरलोकवार्तिक (पृ० ४) में श्रद्धाकुतूहलोत्पादको अदिवाक्यका प्रयोजन माननेवालेके मतका खण्डन उसी प्रकार किया है जिस प्रकारका उद्धरण 'अपरे' शब्दके साथ प्रस्तुत टीकाकार दे रहे है। इससे भी ज्ञात होता है कि विद्यानन्दके ग्रन्थ प्रस्तुत अनन्तवीर्यके सामने रहे हैं । अतः अनन्तवीर्यका समय ई० ८५० से पहिले नहीं हो सकता । आचार्य वादिदेवसूरि स्याद्वादरत्नाकर (पृ० ३५०) में धारणा और संस्कार को एकार्थक माननेवाले महोदयकार विद्यानन्दकी आलोचना करके अनन्तवीर्यका मत देते हुए 'तदेवावदत्' पदका प्रयोग करते हैं । इससे लगता है कि वादिदेवसूरि अनन्तवीर्यको विद्यानन्दका पश्चाद्वर्ती मानते थे या उस समय 'विद्यानन्दके पश्चात् अनन्तवीर्य हुए थे' यह परम्परा थी। इस उल्लेखसे विद्यानन्द और अनन्तवीर्यके पौर्वापर्यकी परम्परा का एक स्पष्ट निर्देश मिल जाता है। अनन्तकीर्ति और अनन्तवीर्य आ० अनन्तकीर्तिकृत लघुसर्वसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ये दो प्रकरण लघीयस्त्रयादि संग्रहमें छपे हैं । इनका बारीकीसे अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि आचार्य अनन्तकीर्ति अपने युगके प्रख्यात विद्वान् थे। उन्होंने सर्वसिद्धि प्रकरणमें वेदोंके अपौरुषेयत्वका खंडन कर आगमको सर्वज्ञप्रणीतत्वके कारण ही प्रमाणता है यह विस्तारसे सिद्ध किया है । सर्वज्ञताके पूर्वपक्ष (बृहत्सर्वसिद्धि पृ० १३१-१४२) में जो 'यजातीयैः प्रमाणैस्तु' आदि ६४ श्लोक जिस क्रमसे उद्धृत किये गये हैं ठीक उसी क्रमसे वे श्लोक शान्तिसूरिकृत जैनतर्कवार्तिक (पृ० ५२-५५) में उद्धृत हैं। इनमें कुछ श्लोक मीमांसा-श्लोकवार्तिकके कुछ प्रमाणवार्तिकके और कुछ तत्त्वसंग्रहके हैं। ___आ० शान्तिसूरिने जैनतर्कवार्तिकवृत्ति (पृ. ७७) में "स्वप्नविज्ञानं यत् स्पष्टमुत्पद्यते इत्यनन्तकीर्त्यादयः" लिखकर स्वप्नज्ञानको मानसप्रत्यक्ष माननेवाले अनन्तकीर्ति आचार्यका मत दिया है। यह मत बृहत्सर्वसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्तिका ही है। वे लिखते हैं-"तथा स्वप्नज्ञाने चानक्षजेऽपि वैशद्यमुपलभ्यते।" (बृहत्सर्वसिद्धि पृ० १५१) शान्तिसूरिका समय ई० ९९३ से ११४७ के बीच माना गया है। ___प्रमेयकमलमार्तण्ड और :न्यायकुमुदचन्द्रके कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र का समय हम ई० सन् ९८० से १०६५ निर्णीत कर चुके हैं। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्डके सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणोंमें अनन्तकीर्तिकी बृहत्सर्वज्ञसिद्धिका शब्दानुसरण पूरा पूरा किया है । बृहत्सर्वशसिद्धि (पृ०१८१-२०४ तकके) अन्तिम पृष्ठ तो कुछ थोड़ेसे हेरफेरसे न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ८३८ से ८४७) के मुक्तिवाद प्रकरणसे अपूर्व सादृश्य रखते हैं। इन्हें पढ़कर कोई साधारण भी व्यक्ति कह सकता है कि इन दोनों से किसी एकने दूसरेका पुस्तक सामने रखकर अनुसरण किया है। (१) “तद्वाक्यात् अंभिधेयादौ श्रद्धाकुतूहलोत्पादः ततः प्रवृत्तिः इति केचित् स्वयूथ्याः; तान् प्रति अपरे प्राहुः.."-सिद्धिवि० टी० पृ. ६॥ (२) "तस्य प्रमाणत्वाप्रमाणत्वपक्षयोः तदुत्पादकत्वायोगात् ।"-त: श्लो० पृ. ३ । (३) जैनतर्कवार्तिक० प्रस्ता० पृ० १४१ । (४) न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भाग प्रस्तावना पृ० ४४-५८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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