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________________ ग्रन्थकार अनन्तवीर्य : समयनिर्णय इन १० उल्लेखोंमें हम निम्नलिखित चार अनन्तवीर्योंको पाते हैं१. अकलङ्कदेव द्वारा तत्त्वार्थवार्तिकमें उल्लिखित अनन्तवीर्ययति । २. रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्य द्वारा सिद्धिविनिश्चयटीकामें उल्लिखित पूर्वव्याख्याकार वृद्ध अनन्तवीर्य । ३. स्वयं रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्य, जो प्रस्तुत टीकाके रचयिता हैं। ४. प्रमेयकमलमार्तण्डकार प्रभाचन्द्रका उल्लेख करनेवाले प्रमेयरत्नमालाके रचयिता अनन्तवीर्य । इनमें तत्त्वार्थवार्तिकवाला उल्लेख किसी महाप्रभावशाली ऋद्धिप्राप्त अनन्तवीर्ययतिका निर्देश कर रहा है । ये अनन्तवीर्य अकलङ्कसूत्रके वृत्तिकार नहीं हैं; क्योंकि तत्वार्थवार्तिक अकलङ्कदेवकी प्रथम रचना है और अकलङ्कसूत्रसे जिन लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय और प्रमाणसंग्रहका ग्रहण करना इष्ट है वे ग्रन्थ तत्त्वार्थवार्तिकके बाद बने हैं । अतः प्रस्तुत टीकाके रचयिता अनन्तवीर्य और वृद्ध अनन्तवीर्य, दोनों ही इनसे सर्वथा भिन्न हैं। प्रमेयरत्नमालाके कर्ता अनन्तवीर्यने वैजेयके प्रियपुत्र हीरपके अनुरोधसे शान्तिषेणके लिये परीक्षामुखकी पञ्जिका बनाई थी। यह आचार्य प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डके बाद बनाई गई है । अतः आचार्य प्रभाचन्द्र जिन अनन्तवीर्यका सबहुमान स्मरण करते हैं वे अकलङ्कसूत्रके वृत्तिकार अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्रका गुणगान करनेवाले प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यसे निश्चयतः भिन्न हैं। अब रह जाते हैं वृद्ध अनन्तवीर्य, इनका हमें कोई ग्रन्थ प्राप्त नहीं है । अतः इनके समय आदिके सम्बन्धमें निश्चितरूपसे कुछ विशेष कहना सम्भव नहीं है । फिर भी प्रस्तुत अनन्तवीर्य इनका जिस ध्वनिमें उल्लेख और आलोचना करते हैं उससे यही लगता है कि ये प्रस्तुत अनन्तवीर्यके समकालीन वृद्ध हैं। शान्त्याचार्य वादिदेवसूरि सायणमाधवाचार्य तथा अन्य ग्रन्थोल्लेखोंसे हम स्पष्ट निर्णय नहीं कर सकते कि उन लोगोंने किस अनन्तवीर्यका निर्देश किया है; क्योंकि दोनों ही अकलङ्कके टीकाकार हैं। उनमें भेदक रेखा तो प्रस्तुत अनन्तवीर्यने अपने साथ 'रविभद्रपादोपजीवी' विशेषण देकर खींची है । अतः हमें इनके सटीक समयनिर्णयके लिये अन्य प्रमाणोंको टटोलना होगा । वृद्ध अनन्तवीर्य अकलङ्क (ई० ७२०-७८०) के बाद तथा प्रकृत अनन्तवीर्य (९५०-९९०) से पहिले हुए हैं, यह निश्चित है। हमारा अनुमान है कि ये प्रकृत अनन्तवीर्यसे अधिक पहिले नहीं होंगे। दार्शनिकों के समयनिर्णयमें ग्रन्थोंकी अन्तरङ्ग समीक्षा भी एक समर्थ साधक होती है। पौर्वापर्यका निर्णय तो उससे हो ही जाता है । अतः हम अब कुछ ऐसे प्रमाण उपस्थित करते हैं जिससे प्रस्तुत अनन्त वीर्यके समयकी सीमाएँ खींची जा सकती हैंविद्यानन्द और अनन्तवीर्य ___ आचार्य विद्यानन्दका जैनतार्किकोंमें अपना विशिष्ट स्थान है। इनके विद्यानन्दमहोदय तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक अष्ट सहस्री आप्तपरीक्षा प्रमाणपरीक्षा युक्त्यनुशासनटीका पत्रपरीक्षा और सत्यशासनपरीक्षा ये दार्शनिकग्रन्थ हैं। श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र भी इन्हींकी कृति है। इनका समय ई० ७७५ से ८४० है ।' आ० अनन्तवीर्यने प्रस्तुत सिद्धि वि० टीका (पृ० १८९) में “ऊहो मतिनिबन्धनः" वाक्य उद्धृत किया है । विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० १९६) में यह वाक्य इस रूपमें उपलब्ध है(6) "वैजेयप्रियपुत्रस्य हीरपस्योपरोधतः । शान्तिषेणार्थमारब्धा परीक्षामुखपञ्जिका ॥"-प्रमेयरत्नमाला प्रश० (२) श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र प्रस्तावना । (३) पृष्ठ ३९ । न्यायकुमु० द्वि० भाग प्रस्ता० पृ. ३० । आप्तपरी० प्रस्ता० पृ. ४७-५२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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