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________________ ८० प्रस्तावना प्रमेयरत्नमाला नामकी परीक्षामुखपञ्जिका लिखी है। यह पञ्जिका वैजेयके प्रियपुत्र हीरपके अनुरोधसे शान्तिषेणके लिए लिखी गई है । पञ्जिकाकारने 'प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति' लिखकर प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका निर्देश किया है । अतः इनका समय प्रभाचन्द्र (ई० ९८० से १०६५) के बादका होना चाहिए और प्रभाचन्द्रके द्वारा स्मृत अकलङ्कके व्याख्याकार अनन्तवीर्यसे इन्हे भिन्न भी होना चाहिए । पं० आशाधरने अनगारधर्मामृतकी स्वोपज्ञटीका (पृ० ५२८) में प्रमेयरत्नमालाका मङ्गलश्लोक उद्धृत किया है । इन्होंने वि० संवत् १३०० (ई० १२४३) में अनगारधर्मामृत समाप्त किया था । अतः प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यका समय ई० १०६५ और ई० १२४३ के बीच आ जाता है । इनकी प्रमेयरत्नमालाका प्रभाव हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसा पर यत्र तत्र हैं। हेमचन्द्रका समय ई० १०८८ से ११७३ है । अतः प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य ई० की ११ वीं शताब्दीके विद्वान् प्रमाणित होते हैं। ये भी प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चय टीकाके कर्ता अनन्तवीर्यसे भिन्न हैं। (८) उभयभाषा कविचक्रवर्ती मल्लिषेणने अपना महापुराण शक सं० ९६९ (ई० १०४७) में समाप्त किया था । इन्होंने महापुराणके प्रारम्भमें अनन्तवीर्यका स्मरण किया है। (९) अभयचन्द्रसूरिने लघीयस्त्रयकी स्याद्वादभूषण नामक तात्पर्यवृत्तिके प्रारम्भमें जिनेन्द्रके विशेषणके रूपमें अकलङ्क और अनन्तवीर्यका नामोल्लेख किया है। अभयचन्द्रसूरिने प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्रको देखकर यह वृत्ति बनाई थी जैसा कि उनके द्वारा किये गये 'अकलङ्कप्रभाव्यक्तम्' आदि उल्लेखोंसे ज्ञात होता है । इनका समय श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने १३वीं सदीका प्रारम्भ अनुमानित किया है । अभयचन्द्रसूरि निश्चयतः प्रभाचन्द्र (११वीं सदी) के बादके विद्वान् हैं। (१०) सर्वदर्शनसंग्रहके कर्ता सायणमाधवाचार्य आहेतदर्शनके निरूपण (पृ० ८३) में सप्तभङ्गीके प्रसङ्गमें 'तत्सर्वमनन्तवीर्यः प्रत्यपीपदत्' लिखकर "तद्विधानविवक्षायां स्यादस्तीति गतिर्मवेत् । स्यानास्तीति प्रयोगः स्यात्तनिषेधे विवक्षिते ॥१॥ क्रमेणोभयवाञ्छायां प्रयोगः समुदायभाक् । युगपत्तद्विववक्षायां स्यादवाच्यमशक्तितः ॥२॥ आद्यावाच्यविवक्षायां पञ्चमो भङ्ग इष्यते । अन्त्यावाच्यविवक्षायां षष्ठभङ्गसमुद्भवः ॥३॥ समुच्चयेन युक्तश्च सप्तमो भङ्ग उच्यते।" ये ३३ श्लोक उद्धृत करते हैं । ये श्लोक हमें प्रस्तुतटीकामें नहीं मिले हैं । प्रस्तुतटीकामें सप्तभङ्गीकी चर्चा भी नहीं है । अतः यह सम्भव है कि सायणमाधवाचार्य अनन्तवीर्यकी प्रस्तुतटीकासे भिन्न किसी अन्य कृतिसे उक्त श्लोक उद्धृत कर रहे हैं,या किसी अन्य अनन्तवीर्यका निर्देश कर रहे हों । आगे बताया जायगा कि अनन्तवीर्यकी एक कृति और है, और वह है प्रमाणसंग्रहभाष्य । प्रमाणसंग्रहमें सप्तभङ्गीका प्रकरण भी है । सायणाचार्यका समय शक १३१२ ई० १३९० हैं । (१) देखो अनगारधर्मामृत प्रशस्ति पृ०६९१ । देखो प्रमाणमीमांसा टिप्पण । न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भाग प्रस्तावना पृ०३५ । (३) प्रमाणमीमांसा प्रस्तावना पृ० ४३ । (४) जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ३१५ । (५) देखो डॉ० पाठकका लेख-भा० ओ० रि० ई. पत्रिका भाग १२,४ पृ० ३७३ । (६) देखो लघीयस्त्रयादिसं० प्रस्ता० पृ० ५। (७) देखो सर्वदर्शनसंग्रह प्रस्तावना पृ० ३३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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