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________________ ग्रन्थकार अनन्तवीर्य : समय निर्णय ७९ न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना धाराधिराज जयसिंहदेव के राज्यकाल' ( वि० १११२ ई० १०५५ ) में की थी । प्रभाचन्द्रका समय ई०९८० से १०६५ निश्चित किया गया है। (५) शान्त्याचार्यने जैनतर्कवार्तिकवृत्ति ( पृ० ७७ ) में अनिन्द्रियज प्रत्यक्षका वर्णन करते समय पूर्वपक्ष में ' स्मृत्यूहादिकमित्येके' इस श्लोकांशके 'एके' पदसे 'अनन्तवीर्यादयः' यानी अनन्तवीर्य आदिका निर्देश किया है | इतना तो सुनिश्चित है कि- स्मृति ऊह और आदि पदसे गृहीत अवायको अनिन्द्रियजप्रत्यक्ष माननेवाले ये अनन्तवीर्य अकलङ्ककी परम्पराकै आचार्य हैं; क्योंकि अकलङ्कदेव लघीयस्त्रय स्ववृत्ति में स्मृत्यादि ज्ञानोंको मानसप्रत्यक्ष कहते हैं । प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चय टीकामें भी अनन्तवीर्यका यही मत प्रतिभासित होता है । शान्त्याचार्यका समय वि० १०५०-११७५ ( ई० ९९३ - १०१८ ) के बीच स्थिर किया गया है। (६) स्याद्वादरत्नाकर ( पृ० ३५०) में वादिदेवसूरिने धारणा और संस्कारको एकार्थक माननेवाले आ० विद्यानन्दके मतकी आलोचना करते हुए एक अनन्तवीर्यका मी मत इस प्रकार दिया है"अनन्तवीर्योऽपि तथा निर्णीतस्य कालान्तरे तथैव स्मरणहेतुः संस्कारो धारणा इति तदेवावदत् । " इन्हीं केवलमुक्तिसमर्थन प्रकरण ( पृ० ४७९) में "अनन्तवीर्यप्रभृतिप्रणीताः कुहेतवः केवलभुक्तिसिद्ध्यै । अन्येऽपि ये तेऽपि निवारणीयाः ..." सका, इसमें यह सूचित किया है कि - अनन्तवीर्य आदिने केवलिभुक्तिका निराकरण किया है । वादिदेवसूरिने वि० संवत् १९७४ ( ई० १११७) में आचार्यपद पाया था । इनका कार्यकाल वि० १९७४ ( ई० १११७) से वि० सं० १२२६ ( ई० ११६९) तक है; क्योंकि राजर्षिकुमारपाल के राज्यकालमें इनकी मृत्यु हुई थी । यद्यपि वादिदेवसूरिके द्वारा उद्धृत वाक्य अक्षरशः हमें प्रस्तुत सिद्धिवि० टीकामें नहीं मिल और न प्रस्तुत टीका में केवलिभुक्तिका खण्डन ही है, किन्तु धारणा और संस्कारको एक माननेकी अकलङ्कीय परम्पराका ́ समर्थन जैसा विद्यानन्दने किया है उसी तरह प्रस्तुत सिद्धिवि० टीका में पाया जाता है । वे द्वितीय प्रस्तावके प्रथम श्लोककी व्याख्या में 'संस्कारतां यात्यपि' पदका 'धारणात्मिका भवति' 'अर्थ करते हैं" और इसी प्रस्ताव के चौथे श्लोकके 'धारयति' पदका 'स्वार्थसंस्कारमाधत्ते' अर्थ करते हैं। इन अर्थोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि अनन्तवीर्य धारणा और संस्कारको एकार्थक मानते हैं । जो वाक्य वादिदेवसूरिने उद्धृत किया है वह या तो वृद्ध अनन्तवीर्य का है या फिर इन अनन्तवीर्य के प्रमाणसंग्रहभाष्यका हो सकता है । (७) माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखसूत्रपर प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड के अनन्तर एक अनन्तवीर्यने ( १ ) इनका एक दानपत्र वि० सं० १११२ का मिला है। देखो - 'राजा भोज' (विश्वेश्वरनाथ रेऊकृत) पृ० १०२-१०३ । (२) न्यायकुमु० प्रश० पृ० ८८० टि० ५ । (३) देखो न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भाग प्रस्तावना पृ० ४८ । " अनिन्द्रियप्रत्यक्षं स्मृतिसंज्ञाचिन्ताभिनिबोधात्मकम् " - लघी० स्व० श्लो० ६१ । ( ५ ) " चिन्ता इन्यन्वर्थसंज्ञाकरणात् तर्कस्य मानसविकल्पत्वोपवर्णनम् । " - सिद्धिवि० टी० पृ० २२३ । (६) जैनतर्क वार्तिक ० प्रस्तावना पृ० १५१ । देखो जैनसाहित्यका सं० इतिहास पृ० २४८ ॥ (८) "स्मृतिहेतुर्धारणा संस्कार इति यावत् । " - लघी० स्ववृ० श्लो० ५ । त० श्लो० पृ० २२० । (१०) सिद्धिवि० टी० पृ० १२० । Jain Education International For Personal & Private Use Only (११) वही पृ० १२४ । www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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