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प्रस्तावना
शिलालेखोक्त अनन्तकीर्ति
'जैनशिलालेख संग्रह प्रथम भागमें दिये गये चन्द्रगिरि पर्वतके महानवमी मण्डपके एक शिलालेख में मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छीय मेघचन्द्र विद्यके प्रशिष्य और वीरनन्दित्रैविद्यके शिष्य अनन्तकीर्तिका स्याद्वादरहस्यवादनिपुणके रूपमें वर्णन मिलता है। यह शिलालेख शक सं० १२३५ (ई० १३१३) का है । इसमें इनकी परम्पराके रामचन्द्रके शिष्य शुभचन्द्रकै उक्त तिथिमें किये गये देहत्यागका वर्णन है।
शिलालेख नं०४७ में इन्हीं मेघचन्द्रविद्यके देहत्यागका समय मार्गशीर्ष शुद्ध १४ शक संवत् १०३७ (ई० १११५) दिया गया है। .
लेख नं० ५० में इन्हीं मेघचन्द्रके शिष्य प्रभाचन्द्रके देहत्यागकी तिथि आश्विन शुद्ध दशमी शक सं० १०६८ (ई० ११४६) दी गई है । इस लेखमें मेघचन्द्र के दो शिष्य प्रभाचन्द्र और वीरनन्दिका उल्लेख है ।'
मेघचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्रदेवने शक १०४१ (ई० १११८) में एक महापूजा प्रतिष्ठा कराई थी।
इन तीन शिलालेखोंमें वर्णित अनन्तकीर्तिकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है-मेघचन्द्र विद्यके शिष्य वीरनन्दि और प्रभाचन्द्र तथा वीरनन्दिके शिष्य अनन्तकीर्ति ।
इन शिलालेखोंमें वर्णित मेघचन्द्र विद्यके प्रशिष्य अनन्तकीर्तिका समय ई० १२ वीं शताब्दी बैठता है; क्योंकि इनके दादागुरुका स्वर्गवास ई० १११५ में हो गया था । अतः ये अनन्तकीर्ति पार्श्वनाथ चरित (ई. १०२५) में स्मृत ग्रन्थकार अनन्तकीर्तिसे जुदे ही कोई भिन्न आचार्य हैं । यदि उस समयके आचार्योंके १२५ वर्ष तकके दीर्घजीवन पर दृष्टिपात किया जाय और गुरु-प्रशिष्यको समकालीन माना जाय तो कदाचित् उक्त शिलालेखोंमें उल्लिखित अनन्तकीर्तिका पार्श्वनाथचरितमें स्मृत अनन्तकीर्तिसे मेल बैठाया जा सके । पर यह खींचतान ही होगी।
बान्धवनगरकी शान्तिनाथबसदि ई० १२०७ में बनाई गई थी। जब कि कदम्बवंशके किंग ब्रह्मका राज्य था । यह बसदि उस समय क्राणूरगण तितिंडिकगच्छके अनन्तकीर्ति भट्टारकके अधिकारमें थी।
ये अनन्तकीर्ति पूर्वोक्त देशीगण पुस्तक गच्छकी परम्पराके अनन्तकीर्तिसे जुदे व्यक्ति हैं। और पार्श्वनाथ चरितमें स्मृत जीवसिद्धि ग्रन्थकार अनन्तकीर्तिसे भी जुदे हैं ।
चिक्कमागडिकी बसवण्णमन्दिरके एक शिलालेखमें जो होय्सलवीर बल्लाळ देवके २३ वें वर्ष (ई० १२१२ के लगभग)का है, जक्कलेके समाधिमरणका वर्णन है । इसमें जक्कलेके उपदेष्टा गुरुके रूपमें एक अनन्तकीर्तिका उल्लेख है। ये अनन्तकीर्ति बान्धवनगरकी शान्तिनाथबसदिके अधिकारी अनन्तकीर्तिसे अभिन्न हो सकते हैं; क्योंकि दोनोंका काल लगभग एक है।
श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अनन्तकीर्तिका समय वादिराज (१०२५ ई.) के पूर्व तथा उनके द्वारा जिनसेनके बाद अनन्तकीर्तिका स्मरण होनेके कारण जिनसेन (ई० ७८३) के बाद होना चाहिये यह माना है। जैसा कि ऊपर लिखित प्रभाचन्द्र और शान्तिसूरिके साथ अनन्तकीर्तिकी तुलनासे स्पष्ट हो जाता है कि अनन्तकीर्तिकी उत्तरावधि निश्चित रूपसे प्रभाचन्द्रका समय है। और यही समय वादिराजका भी है। अतः अनन्तकीर्तिकी उत्तरावधि ई० ९८० तक रखना सर्वथा उचित है । अब पूर्वावधिका नियामक एक प्रमाण मेरी दृष्टिमें यह आया है
(१) जैन शि० भाग १ पृ. ३० । लेख नं. ४१। (२) वही पृ० ६४। (३) वही पृ० ८०। (४) जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ३९ । (५) मिडिवल जैनिज्म पृ० २०९ । (६) जैनशि० तृ० भाग पृ० २३२ । ए० क० भाग ७ शिकारपुर नं० १९६ । (७) जैनसा. और इ. पृ० ४०४ ।
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