SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थकार अनन्तवीर्य : समय निर्णय जिस 'प्रमाणस्यागौणत्वात्' वाक्यको कर्णकगोमिने अविद्धकर्णके मतके सिलसिलेमें दिया है, और वह प्रकरणसे अविद्धकर्णका ही लगता है, वह वाक्य भट्टजयन्त(ई० ९वीं सदी)की न्यायमञ्जरीमें भी चार्वाकके प्रकरणमें उद्धृत है।' स्याद्वाद रत्नाकरमें इसे पौरन्दरसूत्र' कहा गया है । इससे ज्ञात होता है कि इसके ग्रन्थ का नाम पौरन्दर सूत्र होगा । इन सब कारणों से इस चार्वाक अविद्धकर्णका समय ई०८ वींसे पूर्व होना चाहिये। अनन्तवीर्यका समय निर्णय आचार्य अनन्तवीर्यके सम्बन्धमें हमें कुछ भी जानकारी उनकी लिखी हुई नहीं मिलती । प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयटीकाके पुष्पिका वाक्योंमें दिये गये 'रविभद्र पादोपजीवी' विशेषणसे मात्र इतना ही ज्ञात होता है कि इनके गुरु का नाम रविभद्र था । इन रविभद्र आचार्यका भी पता नहीं चलता कि ये किस परम्परामें कब हुए हैं। अतः उनके जीवनवृत्त और समय निर्णयके लिये हमें शिलालेख तथा ग्रन्थों में आये हुए उल्लेखों पर निर्भर रहकर ही विचार करना है। शिलालेखोंसे हमें निम्नलिखित अनन्तवीर्योकी जानकारी मिलती है- . शिलालेखोल्लेख (१) वे अनन्तवीर्य जिनका पेग्गूरके कन्नड शिलालेख में वीरसेन सिद्धान्तदेवके प्रशिष्य और गोणसेन पण्डित भट्टारकके शिष्यके रूप में उल्लेख है। ये श्रीबेळगोलके निवासी थे। इन्हें बेहोरेगरेके राजा श्रीमत् रक्कसने पेरग्गदूर तथा नई खाईका दान किया था । यह दानलेख शक ८९९ ( ई० ९७७ ) का लिखा हुआ है (२) वे अनन्तवीर्य जिनका मरोळ (बीजापुर बंबई ) के शिलालेख में निर्देश है। यह शिलालेख चालुक्य जयसिंह द्वितीय और जगदेकमल्ल प्रथम (ई. १०२४) के समयका उपलब्ध हुआ है। इसमें कमलदेव भट्टारक विमुक्त व्रतीन्द्र सिद्धान्तदेव अण्णियभट्टारक प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य का क्रमशः उल्लेख है । ये अनन्तवीर्य समस्त शास्त्रोंके विशेष कर जैनदर्शन के पारगामी थे । अनन्तवीर्यके शिष्य गुणकीर्तिसिद्धान्त भधारक और देवकीर्ति पंडित थे। ये संभवतः यापनीयसंघ या सूरस्थगण के थे। (३) वे अनन्तवीर्य जिनका मुगद शिलालेख में उल्लेख है । यह शिलालेख धारवाड़ में सोमेश्वर प्रथमके समय (ई० १०४५) का उपलब्ध हुआ है। इसमें यापनीयसंघ कुमुदगण के ज्येष्ठ धर्मगुरु गोवर्धनदेवको सम्यक्त्वरत्नाकर चैत्यालयके लिये दिये गये दानका उल्लेख है । गोवर्धनदेवके साथ ही अनन्तवीर्यका उल्लेख है, पर यह स्पष्ट नहीं है कि अनन्तवीर्यका गोवर्धनसे क्या सम्बन्ध था । इसमें यह भी उल्लेख है किकुमारकीर्ति अनन्तवीर्यके सह अध्यापक थे और दामनन्दि कुमारकीर्तिके शिष्य थे । (१) "तथा चाहुः-प्रमाणस्यागौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः ।"-न्यायम० प्रमा० पृ० १०८ । प्रमेयक पृ० १८०। (२) "प्रमाणस्यागौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभ इति पौरन्दरसूत्रम् ।" स्या० रत्ना० पृ० २६५ । (३) जैनशि० भाग २ पृ. १९९। ए.क. भाग १ कुर्ग नं. ४॥ (४) "श्रीबेलगोळनिवासिगळप्य श्रीवीरसेनसिद्धान्तदेवरवरशिष्यर् श्रीगोणसेनपण्डितभष्टारक बरशिष्यर् श्रीमान् अमन्तवीर्यय्यङ्गळ..."-जैनशि० । (५) बम्बई कर्नाटक इंस्क्रि० जिल्द १ भाग १ नं. ६१॥ जैनिज्म इन साउथ इं० पृ० १०५ । (६) बम्बई कर्नाटक इंस्क्रि० जिल्द । भाग १ नं० ७८ । जैनिज्म इन साउथ ई० पृ० १४१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy