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________________ ७४ प्रस्तावना (१३) कार्योत्पत्ति और कारणविनाशका काल एक नहीं है ।' (१४) क्षणिकवादीके मतमें आत्माका अवस्थान नहीं है अतः अविनाभावका ग्रहण नहीं हो सकता।' इनसे ज्ञात होता है कि अविद्धकर्ण नैयायिक थे और उन्होंने न्यायभाष्यकी टीका बनाई थी। तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षित और पञ्जिकाकार कमलशीलका समय ई० ७६२ निर्णीत है । अतः इन अविद्धकर्णका समय ई० ७६२ के पहिले होना चाहिए । कर्णकगोमिका समय भी ई० ८ वीं सदी सिद्ध किया जा चुका है। तत्त्वोपप्लव (पृ० ५७) में आत्माके नित्यत्वको सिद्ध करनेवाले एक नैयायिकका मत उन्हीं शब्दोंमें दिया गया है जिन शब्दोंमें वह मत तत्त्वसंग्रहपंजिका (पृ० ८२ ) में अविद्धकर्णके नामके साथ पाया जाता है । तत्त्वोपप्लवका यह अवतरण अविद्धकर्णको आत्मवादी नैयायिक मानता है। जैसा कि वादन्यायके प्रथम उद्धरणसे ज्ञात होता है कि अविद्धकर्ण न केवल वादन्यायके टीकाकार शान्तरक्षितके ही सामने हैं अपि तु स्वयं धर्मकीर्तिके सामने भी हैं ऐसा लगता है । शान्तरक्षित अविद्धकर्णके मतको न्यायवार्तिककारके मतके बाद उपस्थित करते हैं इससे यह लगता है कि अविद्धकर्ण उद्योतकरके बाद और धर्मकीर्तिके समकालीन हो । तत्त्वोपप्लवका उल्लेख भी इसीकी पुष्टि करता है । अतः नैयायिक अविद्धकर्णका समय हम ई० ६२०७०० के आसपास रख सकते हैं। इस नैयायिक अविद्धकर्णके अतिरिक्त एक अविद्धकर्ण और हुआ है । यह चार्वाक मतका अनुयायी था । प्रमाणवार्तिकतस्ववृत्तिटीकामें इस चार्वाक अविद्धकर्णका मत इस प्रकार दिया गया है (१) अनुमानको लोकव्यवहारकी दृष्टिसे प्रमाण मान भी लेते हैं, पर लिङ्गका लक्षण नहीं बनता। (२) प्रमाण अनधिगत अर्थको जाननेवाला होता है। चूंकि अनुमान अर्थका परिच्छेद ही नहीं करता अतः वह प्रमाण नहीं है। (३) प्रमाण अगौण होता है, अनुमानसे अर्थनिश्चय दुर्लभ है। यह मत भी इसी सिलसिलेमें दिया है। अनन्तवीर्यने प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयटीका (पृ० ३०६) में इसी चार्वाक अविद्धकर्णका उल्लेख किया है । यथा "इतरस्य अचेतनस्य वा भूम्यादेः मूर्तस्य [ज्ञानम् ] अनेन अविद्धकर्णस्य समयो दर्शितः।" अर्थात् अचेतन और मूर्त पृथिव्यादिका परिणाम ज्ञान है । यह अविद्धकर्णका मत है । इस अविद्धकर्णका समय कर्णकगोमि ( ई० ८ वीं) से पहिले होना चाहिये । (१) "एतेन यदप्युच्यते अध्ययन-अविद्धकर्णोद्योतकरादिभिः यदि तुलान्तयो मोन्नामवत् कार्योत्पत्तिकाल एव कारणविनाशः तदा कार्यकारणभावो न स्यात् , यतः कारणस्य विनाशः कारणोत्पादः । एवं भाव एव नाश इति वचनात्, एवं च कारणेन सह कार्यमुत्पन्नमिति प्राप्तम् ।"-प्र. वा० स्ववृ० टी० पृ० ९० । . (२) “अविद्धकर्णस्त्वाह-अविनाभावित्वमेकं दृष्ट्वा द्वितीयादिदर्शने सति सिध्यति । न च क्षणिकवादिनो द्रष्टुरवस्थानमस्ति । न चान्येनानुभूतेऽर्थे अन्यस्य अविनाभावित्वस्मरणमस्ति अतिप्रसङ्गादिति।" -प्र० वा० स्ववृ० टी० पृ. ९८ । (३) देखो तत्त्वसं० प्रस्ता. पृ० ९६ । (४) देखो पृ० ३५। (५) "मातुरुदरनिष्क्रमणानन्तरं यदाचं ज्ञानं तम्ज्ञानान्तरपूर्वकं ज्ञानत्वात् द्वितीयज्ञानवत् ।"तत्त्वोप० पृ० ५७। (६) देखो-प० ७३ टि. २ । () "तेन यदुच्यते अविद्धकर्णेन सत्यमनुमानमिष्यत एवास्माभिः प्रमाणं लोकप्रतीतत्वात् , केवलं लिङ्गलक्षणमयुक्तमिति"-प्र. वा. स्ववृ० टी० पृ० १९ । (6) "तेन यदुच्यते अविद्धकर्णेन-अनधिगतार्थपरिच्छित्तिः प्रमाणम् , अतो नानुमान प्रमाणमर्थपरिच्छेदकत्वाभावादिति ।"-प्र० वा. स्ववृ० टो० पृ० २५ । (९) "एतेनैतदपि निरस्तम्-प्रमाणस्यागौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः।"-प्र० वा. स्ववृ० टी०१० २५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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